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चर्चासागर २८८]
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धर्मका उद्योत प्रगट किया। देखो जैनशास्त्रों में त्याग भंग करनेका बहुत ही बुरा फल बतलाया है सो आए । लोग आनते ही हैं। प्राणांत होनेपर भी व्रत भंग नहीं करना चाहिये। जो कोई मनुष्य थोड़ेसे भी व्रत लेकर भंग कर देता है उसको जिनप्रतिमा सहित सहस्रकूट जिनालयके भंग करनेका महापाप लगता है। सो हो । व्रतकथाकोशमें सप्त परमस्थानव्रतको कथामें लिखा है । यथागुरून प्रतिभुवः कत्ता भनालले शुनं तम् । सहस्रकूटजैनेन्द्रसमभंगाघभागलम् ।।१०८॥
अर्थात्- "गुरुओंको साक्षीपूर्वक धारण किये हुए एक प्रतको भी जो भंग करता है उसे सहस्रकूट । चैत्यालयके भंग करनेका पाप लगता है ।" सो विष्णुकुमारने अच्छा किया या बुरा किया। तथा फिर वे । विष्णुकुमार मुनि पूज्य रहे या अपूज्य ? ( व्रतभंग करनेपर भी देवोंने पुष्पवृष्टि कर उसी समय उनकी पूजा ।
को सो क्यों ?) है और सुनो मुनिराज श्रीवकुमार भी महावतो थे उन्होंने भी अपने पिता आदि बहुतसे विद्याधरोंको। से अपने बचनसे कहा था कि "रानो उर्वला श्रीजिनेन्द्रदेवका रथ निकालना चाहती है और बौद्धमतको पालने
वालो उसकी सौत उस रथको रोकना चाहती है । वह कहती है कि पहले बुद्धका रथ चलेगा पीछे जिनेन्द्रदेवI का रथ चलेगा। इसलिये तुम लोग जैनधर्मको प्रभावना करनेके लिये उर्वलाका मनोरथ सिद्ध करो और ॥
श्रोजिनेन्द्रक्षेत्रका रथ सबसे पहले चलबाओ। मुनिराजको यह बात सुनकर उन विद्याधरोंने बुद्धका रथ तो। टुकड़े-टुकड़े कर तोड़-फोड़ दिया और श्रीजिनेन्द्रदेवका रथ बड़े उत्सव और बड़ी भारी प्रभावनापूर्वक चलवाया।
सो क्या.महायतोको ऐसा कहना योग्य था। महाव्रती तो मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदनासे समस्त । सावध ( अशुभ ) योगोंके त्यागी हैं फिर उन्होंने अपने मुखसे ऐसे बचन क्यों कहे अथवा मुझसे कहकर ऐसा कार्य क्यों कराया ? कहां तक कहा जाय केवलझानसे सुशोभित श्रीवृषभदेव तीर्थकरसे लेकर श्रीमहावीरस्वामी
प्रायश्चित लिया था। गृहस्थ आरंभका त्यागी नहीं है. इसलिये गृहस्थोंको ऐसे कार्य अवश्य करने चाहिये । जब गृहस्थ घरके कामोंके लिए घर बनवाना, बगोचा लगाना आदि सब काम करता है तब जिनालय बनवाना, प्रतिष्ठा कराना, पुष्प चढ़ाना, आदि कार्य भी उसके कर्तव्य है शास्त्रोंको आज्ञा है और वह उसका स्पागी नहीं है इसलिए उसे अवश्य करने चाहिए न करने से वह फसव्यहोन होकर महापापका भागी होता है ।
Aaनयमान्यचन्ता