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समाधान--8 तीनों लो बनास नामोदगिलात और तनुवात ऐसे तीन वातवलयोंसे घिरा हुआ। है। इन सोनों वातवलयोंमेंसे तीसरे तनुवातवलयमें पैंतालीस लाख योजन प्रमाण सिद्धालय सुशोभित है वहाँ पर सिद्ध परमेष्ठी विराजमान रहते हैं। पंचमंगल भाषामें भी लिखा है। "लोक शिखर तनुवातवलय में संठया।" इस प्रकार और भी जैनशास्त्रों में लिखा है।
३६-चर्चा उनतालीसवीं प्रश्न-इस जीवका ऊर्ध्वगमन स्वभाव है परन्तु मुक्तजीव वातवलयमें लोकके अन्त तक जाते हैं आगे नहीं जाते सो इसका क्या कारण है, वे वहीं तक क्यों रह जाते हैं ?
समाधान-इस लोककी मर्यादा वातवलयके अन्त तक ही है आगे अलोकाकाश है । अलोकाकाशमें केवल शून्यरूप आकाशके सिवाय और कोई पदार्य नहीं है । जीवे पुद्गल धर्म अधर्म काल इन पांचों द्रव्योंका। अभाव जिस आकाशमै हो उसको अलोकाकाश कहते हैं । तया गमन करनेमें सहायक होनेकी शक्ति धर्मास्तिकायमें है और अलोकाकाशमें धर्मास्तिकाय है नहीं । इसलिये धर्मास्तिकायके अभाव होनेसे आगे अलोकाकाशमें 1 अर्ध्वगमन नहीं होता। अतएव मुक्त जोकको स्थिति लोकके अन्त पर्यंत हो रहती है सो ही तत्त्वार्थसुत्रमें लिखा है-"धर्मास्तिकायाभावात्" अर्थात् धर्मास्तिकायका अभाव होनेसे आगे सिद्धोंका गमन नहीं होता।
४०-चर्चा चालीसवीं प्रश्न- मुनिराज एकाग्रचित्त होकर ध्यान करते हैं सो उस ध्यानको स्थिति कितनी है।
समाधान-शारीरिक बाह्य पर पदार्थोके चितवनका निरोष कर अपनी आत्माके स्वरूपोंमें एकाग्रताका चितवन शसध्यान है। वह धर्मध्यान शक्लम्यानके भेदसे दो प्रकार है वह ववषभनाराच: वचनाराच और नाराच इन तीनों उत्सम संहननोंको धारण करनेवाले जीवोंके होता है । इनमें भी बनवृषभनाराक नामके ।
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१. धम्माधम्मा कालो पुग्गल जीवा य संति जावदिए । आवासे सो लोगो दत्तो परदो अलोगुत्तो। ही अर्थ-धर्म, अधर्म काल, पुद्गल, जीव ये पांच पदार्थ जितने आकाशमें रहते हैं उसको लोक कहते हैं और जिस बाकाशमें कोई
द्रव्य न हो उसको अलोकाकाश कहते हैं ।