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पर्चासागर [ १७८ )
___ॐ ह्रीं अहं श्रीपरमब्रह्मन् अनन्तानन्तज्ञानशक्ते एहि एहि अत्रावतरावतर संवौषट् स्वाहा इत्याह्वानम्।। ॐ ह्रीं अहं श्रीपरमब्रह्मन् अनन्तानन्तज्ञानशक्ते अन सिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्वाहा स्थापनम् । ॐ ह्रीं अहं । श्रीपरमब्रह्मन् अनन्तानन्तज्ञानशक्ते अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् स्वाहा इति सन्निधिकरणम् । इस प्रकार सबसे पहले आकर्षण करना चाहिये और वह आकर्षण आकर्षणी मुद्रासे तथा दंडासनसे ( खड़े होकर ) पुष्पक्षेपण करना चाहिये। दूसरा उपचार स्थापन है वह पद्मासनसे अथवा सुखासनसे स्थापनो कर्षणो मुद्रापूर्वक पुष्पक्षेपण कर करना चाहिये। तीसरा सन्निधिकरण पपासनने ऊर्ध्व मुद्रा रखकर पुष्पोपण करना चाहिये । इन तीनों मुद्राओंका स्वरूप इस प्रकार है। दोनों हाथोंको खोलकर एक साथ मिलाकर फैलावे फिर दोनों अंगूठे अनामिकाके मूलस्थानमें रखनेसे आकर्षणी मुद्रा बन जाती है। स्थापनोमुद्रा-उसी आकर्षणीमुद्रा सहित दोनों हाथों को उलटा रखनेस स्थापनामुद्रा होती है। सन्निधिकरणमुत्रा-दोनों हाथोंको मुट्ठी बांधकर । मिलानेसे और दोनों अंगूठे ऊपरकी ओर रखनेसे सन्निधिमुद्रा होती है। सन्निधिकरण करते समय सन्निधिमुद्रासे हृदय स्पर्श करना चाहिये और नमस्कार करना चाहिये । सो हो मुद्रोद्धार शास्त्रमें लिखा है
हस्ताभ्यामजलिं कृत्वानामिका मूलपर्वणि ।। अंगुष्टौ ना क्षिपेत्सेयं मुद्रात्वावाहनी मता ॥ अधोमुखी इयं चेत्स्यात्स्थापिनी मुद्रिका मता ॥
उच्छितांगुष्ठयुष्टयोस्कसंयोगात्सन्निधापिनी ॥ इस प्रकार मुद्राका स्वरूप बतलाया।
तदनंतर श्रीं आई श्रीपरमाणेऽनंतालानशाक्तये जलं निर्वपामीति स्वाहा। जलम । यह मंत्र पढकर जल चढाना। फिर 'ॐ ह्रीं आई श्रीपरमब्रह्मणेऽनन्तानन्तज्ञानशक्तये गंध निर्वपामीति स्वाहा' । गंध ।। यह मंत्र पढ़कर भगवानके चरणोंपर गंध लेपन करना चाहिये। फिर 'ॐ ह्रौं अहं श्रीपरमब्रह्मणेऽनन्तानन्तजानशक्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्थाहा' । अक्षतान् । यह मंत्र पढ़कर अक्षत बढ़ाना चाहिये । फिर 'ॐ ह्रीं अहं श्रीपरमब्रह्मणेऽनन्तानन्तज्ञानशक्तये पुष्पं निर्वपामोति स्वाहा'। पुष्पं । यह मंत्र पढ़कर पुष्प चढ़ाना चाहिये । फिर 'ह्रीं अहं श्रीपरमब्रह्मणेऽनन्तानन्तशाक्तये नैवेद्य मिर्वपामीति स्वाहा' । नैवेद्यम् । यह मंत्र ।