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चर्चासागर [ ४२५
यह कितना बड़ा अन्याय है। ऐसे लोग शिकारी पा व्याया कहे जाते हैं। उनके वस्त्र, भेष आदि भी महा विकराल और पापरूप दिखाई पड़ता है ।
भारत में लिखा है— श्रीकृष्ण युधिष्ठिरसे कहते हैं कि
यो दद्यात्कांचनं मेरु कृत्स्नां चापि वसुन्धराम्। एकोऽपि जीवितं दद्यात् न च तुल्यं युधिष्ठिर ॥ अर्थ — श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे युधिष्ठिर ! किसी पुरुषने मेरुपर्वतके समान सुवर्ण दान दिया । तथा समस्त द्वीपोंकी समस्त पृथ्वी दान दे वी । तथा किसी दूसरे मनुष्यने किसी एक जीवको अभयदान दिया अर्थात् उसे मरने से बचाया उसे जीवदान दिया तो उस सुवर्णदान वा पृथ्वी दान बेनेवालेका पुण्य जीवदान देनेवालेके पुण्यके समान नहीं होता । भावार्थ-उस सुवर्णदान वा समस्त पृथ्वीवानसे भो एक जीवके अभयदानका पुण्य बहुत अधिक है। संसार में अभयदान के समान और कोई पुण्य नहीं है अथवा कोई दान नहीं है। जो लोग अपने स्वार्थको सिद्धिके लिये जीव हिंसाकी पुष्टि करते हैं वे अस्यन्त कुष्ट और नीच हैं । भारतमें लिखा है— यो यत्र जायते जन्तुः स तत्र रमते चिरम् । ततः सर्वेषु भूतेषु दयां कुर्वन्ति साधवः ॥
अर्थात् — यह जीव जहाँ जन्म लेता है वहीं रम जाता है, क्रीड़ा करने लगता है, वहीं सुख मानता है और वहाँ ही बहुत दिन तक रहकर जीना चाहता है । इसीलिये सज्जन पुरुष वा उत्तम मनुष्य समस्त प्राणियों पर क्या पालन करते हैं । भारतमें लिखा है
यस्य चिसं द्रवीभूतं कृपया सर्वजन्तुषु । तस्य ज्ञानं च मोक्षं च किं जटाभस्म चाम्बरैः ॥ अर्थ - जिसका हृदय समस्त प्राणियों में होनेवाली दयाके द्वारा द्रवीभूत है, फोमल है उसीको जानकी प्राप्ति होती है और उसीको मोक्षको प्राप्ति होती है। ज्ञान और मोक्षके लिये जटाओंका बढ़ाना, शरीरमें भस्मका लगाना तथा गेरु आदिके रंगे हुए वस्त्रोंको धारण करना सब व्यर्थ है। बिना क्याके केवल भेष धारण करना स्वांग है उस भेषसे मोक्ष नहीं मिल सकती । वह भेव केवल लोभके लिये है ।
यदि जीवोंके बघ करनेमें, ओयोंकी हिंसा करनेमें धर्म है और जीवोंका घात करनेवाले वा मांस भक्षण करनेवाले पुरुष स्वर्गमें जाते हैं तो फिर संसारका त्याग करनेवाले व्रती, संयमी, तपस्वी वा अनेक यम नियमोंको धारण करनेवाले पुरुषोंको स्वर्गलोककी प्राप्ति कभी नहीं होनी चाहिये। ऐसे तपस्वियोंको फिर नरककी प्राप्ति होनी चाहिये परन्तु ऐसा होता नहीं है । भागवतमें लिखा है---
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