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________________ ११६-चर्चा एकसौ उन्नीसवीं प्रश्न-प्रमत नामके छठे गुणस्पानवर्ती मुनियोंके आहारक शरीर होता है। चैत्य बन्दना करने, वर्षासागर याश करने वा पदार्थोके निर्णय करनेके लिये मस्तकसे एक हाय प्रमाण श्वेत पुरुषाकार प्रदेश निकलते हैं। १४] केवलोके वर्शन कर अथवा यात्राविक अपना कार्य कर फिर वहीं आकर प्रवेश कर जाते हैं ऐसे इस आहारक। शारीरकी उत्कृष्ट जघन्य स्थिति कितनी है ? ___समाधान--आहारक शरीरको जघन्य सथा उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त है। तथा आहारक शरीर पर्याप्तिको पूर्णता होनेपर आहारक योगवाले छठे गुणस्थानवर्ती साधुको आहारक काययोगके समयमें यदि आयु- । का अन्त हो जाय तो उनका मरण भी हो जाता है, सो ही गोम्मटसारमें मार्गणामहाधिकारके अन्तर्गत योग मार्गणाधिकारमें लिखा है-- अव्वाघादी अंतोमुहत्तकालट्रिदी जहण्णिदरे । पज्जत्तीसंपुण्ण मरणं पि कदाचि संभवई ॥ २३८ ॥ १२०-चर्चा एकसौ बीसवीं प्रश्न---ऊपर आहारक शरीरका काल अंतर्मुहूर्त बतलाया उस समय वह साधु अपने प्रोवारिक शरीरसे गमन आगमन आदि क्रिया करे या नहीं और यदि उसके विक्रिया ऋद्धि भी हो तो उस ऋद्धिके द्वारा शरीरको । विनिया रूप चेष्टा कर सकता है या नहीं ? समाधान--प्रमत्त संयमी मुनिराजके एक कालमें एक ही साय वैक्रियिक काययोगको क्रिया आहारक योगकी क्रिया नहीं होती। इससे सिद्ध होता है कि आहारक योगके समय औदारिक वैक्रियिक शरीरसे गमनागमनाविक क्रियाओंका नियमसे अभाव रहता है एक कालमें वो क्रियाएं नहीं होती । सो ही गोम्मटसारमें योगमार्गणाधिकारमें लिखा है। वेगुब्बिय आहारयकिरिया ण समं पमत्तविरद म्हि । जोगो वि एककाले एक्केव य होदि णियमेण ॥ २१२ ।। चा-AS-IN-चमचान्याच्या
SR No.090116
Book TitleCharcha Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampalal Pandit
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages597
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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