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________________ चर्चासागर [ ४८२ ] ज्यों-ज्यों दुष्काल भीषण होता गया त्यों-त्यों कंगाल और दरिद्रोंकी तथा मांगनेवालोंको संख्या बढ़ती । गई। उनके कारण मुनियोंके आहारमें भी विघ्न होने लगा। किसो एक दिन रामलाचार्य आदि कितने ही साधु आहार लेकर वनमें जा रहे थे परन्तु मार्गमें उन मांगनेवाले कंगलोंने किसी मुनिका पेट फाड़ डाला और उनके पेटमेंसे खाया हुआ अन्त निकाल कर भक्षण कर गया। इस बातको सुनकर सब शहरमें हाहाकार मच गया। तब कुबेरमित्र आदि सेठोंने उन मुनियोंसे प्रार्थना को कि महाराज आप धनमें रहना छोड़ दीजिये और नगरमे । रहिये । तब वे मुनि नगरमें आ गये और अलग-अलग उपाश्रयों में रहने लगे। इतना सब करनेपर भी भोजनके समय मार्गमें कंगलोंके द्वारा अंतराय होना बंद नहीं हुआ। तब श्रावकोंके हटसे उन मुनियोंने विनमें आहारके लिये जाना छोड़ दिया और रातमें तुम्बीफलके पात्रमें (सफी तूंवड़ोमे ) आहार लाकर विनमें खाने लगे। किसी एक दिन एक नग्न मुनि रातमें आहार लेने के लिये एक यशोभद्र नामके सेठके घर गये, उस हासेठको धनश्री नामकी सेठानी गर्भवती थो सो हाथमें वंउपात्र लिये नग्न और दुर्बल मुनिको देखकर तथा उन्हें राक्षस समानकर वह डर गई और दाते ही उसका गर्भपात हो गया। वे मुनि तो वापिस चले गये परन्तु उस समय उन सब लोगोंने विचार कर उन भ्रष्ट यत्तियों से कहा कि "इस समय यह नग्न भेष पल नहीं सकता। इसलिये एक खंड वस्त्रकी धोती पहिनो और मस्तकपर एक केवलका अर्द्धफाल्क (कंधलका आधा टुकड़ा ) र रक्खो। फिर रातको भोजन लाकर उपाश्रयम रख लो और दिनमें खा लो।" इस प्रकार उन मुनियों से निवेदन फिया । वे मुनि भ्रष्ट तो थे ही उन्होंने इन श्रावकोंकी सब बातें स्वीकार कर ली। इसके बाद उन श्रावकोंने ! उन मुनियोंसे यह भी कहा कि आप लोग इन कंगालोंको दुर्गन्ध रोकने के लिये हाथमें एक वस्त्र रक्खो। दुर्गन्ध । आनेपर उससे मुंह नाक बंद कर लिया करो । सो भी उन्होंने स्वीकार कर लिया। इस प्रकार अर्बफाल्कोंको उत्पत्ति हुई है। राजा चन्द्रगुप्तने उन सोलह स्वप्नोंका फल सुनकर वीक्षा धारण कर ली थी और मुनिराज भद्रबाहु aPATHANDARISHAamsanel r Saha १. इसके बाद कितना ही काल बीत जाने पर कितने ही श्वेताम्बर साधुओंने हाथ में वस्त्र लेने के बदले उसमें डोरा लगाकर मुंहसे बांध लिया जिससे वे महन्ट्रोवाले कहलाये। यदि कोई उनसे इसका कारण पूछता है तो कहते हैं कि बायु कायके जीवोंकी रक्षाके लिये यह पट्टी बांधी गई है।
SR No.090116
Book TitleCharcha Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampalal Pandit
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages597
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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