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________________ F कायोत्सर्ग कर नमस्कार करना चाहिये फिर जल, गंधादिक पूजनकी सामग्रीको तथा उपकरणादिकोंको पवित्र कर अर्घ बनाना चाहिये । "ओं ह्रीं अहं वास्तुदेवाय इदमयं पाचं, गंध, पुष्पं, दोपं, धूपं, चरुं, बलि, स्वस्तिकं, है पर्चासागर अक्षतं, यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यता प्रतिगृह्यता स्वाहा" यह मन्त्र पढ़ कर पूजनकी भूमिपर अर्घ चढ़ाना [ १७१ चाहिये । फिर "ओं ह्रीं वायुकुमाराय सर्वविघ्नविनाशनाय महीं सम्मार्जनं कुरु कुरु स्वाहा" यह मन्त्र पढ़कर डाभके पूलासे पूजाको भूमिको मार्जन करना चाहिये तथा पूर्व दिशा और ईशान विदिशाके मध्यमें एक अर्ध! म देना चाहिये। फिर "मेघकुमाराय हं संव में वं क्षालनं कुरु कुरु धरा प्रक्षालय प्रक्षालय अहं भूमिशुद्धि करोमि स्वाहा" यह मन्त्र पढ़कर जलको डाभसे लेकर पूजाकी पृथ्वीपर छोटे देने चाहिये। फिर ईशान और उत्तर दिशाके मध्यमें मेयकुमारको अर्घ देना चाहिये। फिर “ओं ही अर्ह अग्निकुमाराय भूमि ज्वालय ज्वालय, अंहं सं ठं ठंसं पः फट् स्वाहा" यह मंत्र पढ़कर दामके पूलेको वीपकसे जलाकर पूजाको पुरवीपर रखना चाहिये तथा अग्निकोणमें अग्निकुमारके लिये एक अर्थ देना चाहिये। फिर "ओं ह्रीं क्रौं वषट, षष्ठिसहस्त्रसंख्येभ्यो नागेभ्यो अमृतमिलि प्रसिधयामि स्वाहा" यह मंत्र पढ़ कर ईशानकोणमें मागकुमारोंको संतुष्ट करने के लिये जलधारा वेनी चाहिये। फिर मां को अत्रस्थ क्षेत्रपाल आगच्छागच्छ संवौषट् अत्र तिष्ठ तिष्ठ 3 भत्र मम सन्निहितो भव भव वषट, इवं अध्यं पाणं, गंध, पुष्पं, वोपं, धूपं, बरुं, बलि, स्वस्तिकं, अक्षत, यामागं च यजामहे, यजामहे, प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्मासां स्वाहा इस मन्त्रको पढ़कर वहाँके क्षेत्रपालको आह्वान ____ यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम । तस्मात्कारुण्यभावेन रक्ष-रक्ष जिनेश्वर ! हे भगवान् मुझे आप ही शरण है और कोई कारण नहीं है । इसलिये हे जिनेश्वर ! करुणा करके मेरी रक्षा कीजिये। जिनधर्मविनिर्मुक्तो माभवं चक्रवर्त्यपि । स्याच्चेटोपि दरिद्रोपि जिनधर्मानुवासितः। जिनधर्मसे रहित चक्रवर्ती होना अच्छा नहीं और जिनधर्म सहित दरिद्र सेवक होना अच्छा। जन्मजन्मकृतं पापं जन्मकोस्यामपाणितम् । जन्ममृत्युजरातक हन्यते जिनदर्शनात् । श्रीजिनेन्द्रदेवके दर्शन करनेसे जन्म-जन्मके किये हये पाप तथा कोटि जन्ममें उपर्जन किये जन्म, मृत्यु, जरा, रोग आदि सब नष्ट हो जाते हैं। ... नहि त्राता नहि त्राता नहि त्राता जगत्त्रये । वीतरागात्परो देवो न भूतो न भविष्यति । इन तीनों लोकोंमें वीतराग देवके सिवाय अन्यदेव न रक्षा करनेवाले हुए न होंगे। जिने भक्तिजिने भक्तिजिने भक्तिदिने दिने । सदामेऽस्तु सदा मेऽस्तु सदा मेऽस्तु भवे भवे । मेरे प्रतिदिन और प्रत्येक भवमें श्रीजिनेन्द्रदेवको हो भक्ति सदा रहो।
SR No.090116
Book TitleCharcha Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampalal Pandit
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages597
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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