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प्रोक्तास्तीर्थंकरोत्सेधादुत्नु'गेन द्विषड्गुणाः।
इस प्रकार जानना। पर्चासागर
१०३-चर्चा एकसौ तीसरी प्रश्न-चतुर्गति निगोद दो प्रकार है, एक नित्यनिगोद और दूसरा इतरनिगोद । इन दोनों निगोवों में क्या अन्तर है?
समाधान--जो अनादिकालसे एकेन्द्रिय कर्मके उदयसे सवा स्थावर गतिमें ही जन्म-मरण करते रहें। तथा जो भूत, भविष्यत्, वर्तमान किसी भी कालमें कभी भी दो इन्द्रिय आदि त्रस पर्याप धारण न करें। जिनकी स्थावर गतिका न आदि है न अन्त है. सदा अनन्तकायके आश्रित जन्म-मरण धारण करते जीवोंको नित्य निगोदिया जीव कहते है। इसीलिए इस गतिको नित्यगति अथवा शाश्वत गति ऐसा सार्थक नाम कहा है। तीन पाप कर्मके उदयसे अनन्तानन्त जीव इस नित्य निगोदमे सदा रहते हैं। सो ही सिद्धान्त(सारमें लिखा है
त्रसत्वं न प्रपद्यते कालेन त्रितयेऽपि ये। ज्ञेया नित्यनिगोदास्ते भूरिपापवशीकृताः॥ श्रीगोम्मटसारमें भी लिखा है--
अस्थि अणंता जीवा जेहिं ण पत्तो तसाण परिणामो।
भावकलंकसुपउरा णिगोदवासं ण मुचंति ॥ १७ ॥ तथा जिससे निकल कर असतिको प्राप्त करे अथवा प्रमगति पाकर जिस निगोदमें जाय उसको । इतरनिगोद कहते हैं। इस प्रकार निगोद दो प्रकारके हैं। निगोद शब्दकी निरुक्ति इस प्रकार है। जो अपने शरीरके अङ्गरूपी क्षेत्रमें रहने के लिये अनन्तानन्त जीवोंको जगह देवे उसको निगोद कहते हैं। नि-नियतं गां (गो शब्दका द्वितीयाका एकवचन) भूमि क्षेत्रं अनन्तानन्तजीवानां व-दवातीति निगोदम् । निगोदं शरीरं येषां ते निगोदशरीराः । अर्थात्-नि का अर्थ नियत है गो शब्दका अर्थ क्षेत्र वा निवास स्थान है और द शब्दका अर्थ
देना है। जो नियमसे अपने शरीर में अनन्तानन्त जीवोंको उत्पन्न होनेके लिये क्षेत्र देवे उसको निगोद कहते हैं। में ऐसे शरीरको निगोद शरीर कहते हैं ।
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