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चर्चासागर
रामाय-मान्यामक
जनधर्मका अशान जान आचरण करते हैं ये सर्वप्रणीत आनाके पालन करनेवाले होनेके कारण योग्य । 1 और व्यवहार सम्यग्दृष्टी हैं। उनका धर्म पालन करना अपने-अपने भावोंके अनुसार सब सफल है । ऐसा समझना चाहिये।
२५१-चर्चा दोसौ इक्यावनवीं प्रश्न-जिन प्रतिमाके जंगम और स्थावर ऐसे दो भेद सुने हैं तो इसका क्या अभिप्राय है ?
समाधान--यह कथन श्रीकुन्दकुन्दाचार्य ने अपने पाहुड़ ग्रन्थों में मुनियोंके धर्म क्रिया और आचरणोंको अपेक्षासे किया है। यह कथन सद्भूत निश्चय नयका विषय है । अनादिकालसे चले आये इस दिगम्बर आम्नायसे श्वेताम्बर धर्म निकला । उसने आयतन आदि वस्तुओंका स्वरूप विपरीतरूपसे पुष्ट किया । उनको समझामेके लिए आचार्योने उनका यथार्थ स्वरूप प्रतिपाबन किया है । आयतन १, चैत्यगृह २, जिनप्रतिमा ३, वर्शन ४, जिनबिम्ब ५, जिनमुद्रा ६, ज्ञान ७, देव ८, तीर्थ ९, अरहन्त १०, शुद्धप्रवज्या ११ इन वस्तुओंका स्वरूप बतलाया है। उसमें जिन प्रतिमाको चेतना लक्षण सहित भी बतलाया है और उसके जंगम और स्थावर ऐसे दो भेव बतलाये हैं । सो ही बोधपाहुड़में लिखा हैसपरा जंगमेदहा दंतणणाणेण सुद्धचरणाणाणिग्गंथवीयराया जिणमग्गे एरिसा पडिमा।।१०
अर्थ-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञानके द्वारा जिसके चरित्र अत्यन्त निर्मल हैं ऐसा अपना वा दूसरेका चलता हुआ जो शरीर है उसको जिनमार्ग निर्गन्थ वीसरागमयी, चलती प्रतिमा अथवा जंगम प्रतिमा कहते हैं।। जं चरीद सुद्ध चरणं जाणइ पिच्छेद सुद्ध सम्मत्तं ।
सो होइ बंदणीया णिग्गंथा संजदा पडिमा ॥१॥ ___ अर्थ-जो मुनि शुद्ध आचरणोंको धारण करते हैं । अपने शुद्ध ज्ञानके द्वारा पदार्थोके स्वरूपको यथार्थ जानते हैं और जो सम्यग्दर्शनके द्वारा अपने आत्माको देखते हैं ऐसे शुद्ध सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र गुण जिनके विद्यमान हों ऐसो निर्ग्रन्य संयमस्वरूपी प्रतिमा सदा वंदना करने योग्य है । अन्य श्वेतामर आदिके द्वारा कल्पना को हुई प्रतिमा का श्वेताम्बरोंके द्वारा कल्पना किये हुए अरहन्त वा साधु बन्दना करने योग्य नहीं है । इस प्रकार जंगम प्रतिमाका स्वरूप है ।