________________
चर्चासागर
२७३
उस मूर्तिको कस्बे जलसे प्रक्षालन क्यों करते हो ? क्या फरसे जलको एक-एक बूँद में असंख्यात जीव नहीं है ? क्या उनका घात नहीं होता ? और फिर भगवानको प्रक्षालन करना उनके त्यागका भंग करना नहीं हैं ? क्योंकि उनके तो स्नानका त्याग है। इसके सिवाय उनके वस्त्रोंका भी त्याग है फिर प्रक्षाल करते समय उनके सब शरीरपर बस्त्रका संबंध क्यों करते हो ? क्या यह उनका व्रत भंग करना नहीं है ? जिस किसी पुरुषने चार प्रकारके आहारका त्याग कर उपवास धारण किया है वह यदि पानीकी एक बूंद पो ले अथवा भोजनका एक कणा मुखमें रखकर खा लें तो उसका उपवास बना रहेगा या भंग हो जायगा । कदाचित् यह कहो कि इससे उसकी प्रतिज्ञा भंग हो जायगी और इसीलिये तुम लोग चरणोंके नाखूनपर थोड़ासा गंध लगाने में भी सरागताका दोष मानते हो तो फिर जो दंतधावनके त्यागी हैं, स्नानके त्यागो हैं, वस्त्रोंके त्यागी हैं और अन्नपानके त्यागी हैं इसलिये स्नान, वस्त्र, जल, नैवेद्य, पुष्प, गंधार्थन आदि आठ द्रव्योंसे उनकी सराग पूजा क्यों करते हो ? क्या इन कार्योंमें आरम्भ नहीं है अथवा आप लोगोंको दोष लग नहीं सकता? क्या बात है ? सो बतलाना चाहिये | अतएव हट करना श्रद्धानियोंका काम नहीं है। ऐसा अनेक ग्रन्थोंमें लिखा है । ज्ञानो पुरुषोंको समझने के लिये तो एक ही शास्त्रका प्रमाण बहुत है। जो भगवानकी आज्ञाका पालन करते हैं वे तो एक ही शास्त्रका प्रमाण मान लेते हैं सो ही हो लिखा है "सुज्ञेषु बहुनोक्तेन किमित्यलम्' अर्थात् "विद्वानोंको बहुत कहने से कोई लाभ नहीं होता" उनके लिए एक हो प्रमाण है परन्तु जो भगवानकी आज्ञा नहीं मानते उनके लिये कहना न कहना दोनों समान हैं, अनेक प्रमाण बतलानेपर भी ये नहीं मान सकते ।
फिर भी इसी विषयको उदाहरण देकर बतलाते हैं। यदि कोई दुष्ट पुरुष शिकार करके वा जाल फैला - कर अथवा किसी शस्त्रले पशु, पक्षी, मछलो आदि जीवों को मारता हो और उसको अहिंसाणुव्रतको धारण करनेवाला श्रावक उपदेश देकर छुड़ाता हो और वह न मानता हो तो क्या करना चाहिये । उसको जबर्दस्ती छुड़ाना चाहिये या मरने देना चाहिये ? यदि वह जबर्दस्ती छुड़ानेपर भी नहीं मानता है तो पत्थर, लकड़ी, जूते, शस्त्र आदिसे धमका कर था प्रहार कर भी छुड़ाते हैं उस घमको वा मारपीटमें कोई-कोई मर भी जाता है अथवा पशु-पक्षियोंमें अनेक जीव दूसरोंको मारकर खाते हैं उनको पत्थर, लकड़ी आदि की घातसे छुड़ाते हैं। जो जीव पत्थर, लकड़ीके घातसे अपने आहाररूप जीवको छोड़ देता है उसके भोगोंका अन्तराय होता है
३५
[ २७