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________________ पर्चासागर [२६१ ] अपनी बड़ी निंदा की थी। उस आत्मनिवासे ही उसका बाको बचा पाप दूर हो गया था, वह भगवानको भक्तिी करने लगी भी और उससे यह स्वर्गमें उत्पन्न हुई थी । इस कथाका वर्णन विस्तारसे उन ग्रन्थों में लिखा है। इसके सिवाय इन्हीं दोनों ग्रन्योंमें तथा और भी शास्त्रोंमें एक पुरंदर विधान लिखा है वह इस प्रकार है। एक किसी विष्णुभट्ट नामके ब्राह्मणने किसी मुनिराजसे पुरंवरविधान व्रत लिया था। उसने पंचामृतका अभिषेककर फिर जल, गंधाविकसे भगवानका महाभिषेक किया था और अष्ट द्रव्यसे पूजा की थी सो उसके। फलसे प्रथम तो उसका दारिद्र दूर हो गया या फिर उसने राजपद प्राप्त किया था और अंतमें समाधिमरण धारणकर सौधर्म नामके प्रथम स्वर्ग में सौधर्म नामका इंद्र हुआ था। देखो कहां तो ऐसा करनेवालोंके महान् पुण्यरूप फलका वर्णन है और कहाँ तुम्हारे मिथ्या और खोटे। वचनोंसे उन पुण्यकार्योको निंदा और निषेधका कथन है। क्या इससे तुमको दोष नहीं लगेगा? परंतु जीवको है जैसी होनहार गति होती है उसकी बुद्धि भी वैसी ही उत्पन्न हो जाती है। यदि कोई शास्त्राविकोंके प्रमाणसे उपदेश देता है तो भी उसको सत्य बात भी झूठी दिखाई पड़ती है । तथा अपनी झूठी बात भी सत्य मालूम पडती है। ऐसे लोग सैकडों शास्त्रोंके वचनोंके तो सबको मिथ्या मानते हैं और अपने वचन सत्य मानते है जो शास्त्रोंकी बात छोड़कर उस मिथ्याभाषण करनेवालेके मुखसे निकली हुई बात झट मान लेते हैं । यदि एक वा दो शास्त्र हों तो न माने जात्रं परंतु अनेक शास्त्र भी सब असत्य माने जाते हैं और उसके निवक वचन सत्य माने जाते हैं यह सर्वया अयोग्य है । जैनधर्मी तो सत्य वचनोंको मानकर सूत्रोंका संग हो छोड़ देते हैं। । तथा जो ऐसे मिथ्याभाषियोंका विश्वास कर और जिन वचनोंसे अचि कर अनेक प्रकारके विपरीत कथन करते हैं तथा अपनेको अपने ही मुखसे श्रद्धानी बतलाते हैं सो सब मिथ्या है। इस, अभिषेक, महाभिषेक, जिनपूजा प्रतिष्ठा, तीर्थयात्रा, देवदर्शन, वंदन, पूजन, प्रभावना अंग, रथयात्रा, राग्निपूजन आदिम जो स्यकपोलकल्पित महापापरूप वचन कहते हैं अनेक प्रकारको निवारूप बकवाद | करते हैं सो इसका कथन पहले लिख हो चुके हैं वहाँसे देख लेना चाहिये। इस अभिषेकपूर्वक पूजा करने के समान गृहस्यों के लिये और कोई भी महापुण्य नहीं है जो लोग इसकी निदा करते हैं वे निंदनीय हैं ऐसे लोगोंको सुभाषित प्रन्थों में सर्वचांडाल कहा है । यथा
SR No.090116
Book TitleCharcha Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampalal Pandit
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages597
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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