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वर्षासागर [ २६२]
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है पक्षीनां काकचांडालः पशुचांडालगर्दभः । मुनीनां कोपचांडालः सर्वचांडालनिंदकः ॥
__ अर्थात् "पक्षियोंमें कौआ चांडाल है, पशुओंमें गधा चांडाल है, मुनियों में क्रोधो चांडाल है और निवा करनेवाला सबसे बढ़कर चांडाल
इसके सिवाय और भी लिखा है यथा। फलस्य कारणं पुष्पं फलं पुष्पविनाशकः । पुण्यस्य कारणं पापं पुण्यं पापविनाशकः ॥ धर्मस्य कारणं पुण्यं पुण्यं धर्मविनाशकः । मोक्षस्य कारणे धर्मः धर्मः मोक्षस्य साधकः ॥
__ अर्थ---जैसे वृक्षमें फल लानेका कारण पुष्प है। परन्तु वह फल पुष्पका नाश करनेवाला है। भावार्थ-पहले पुष्प आता है फिर फल लगता है और जब फल लगता है तो पहलेके लगे हुए पुष्पोंका नाश कर उत्पन्न होता है । इसलिये वह फल पुष्पोंका नाश करनेवाला है। इसी प्रकार धर्मसेवन करनेरूप पुण्यका कारण गृहस्थधर्म में होनेवाले आरम्भमय पाप हैं अर्थात् देवपूजाको सामग्री धोना, मुनियोंको वान वेनेके लिये
रसोई बनाना आदि खेतो, व्यापार आदि छहों कर्मोसे उत्पन्न हुए आरम्भमय पाप पहले होते हैं तदनन्तर वान 1 देने, पूजा करने आदि शुभ कार्योंसे पुण्य पोछे उत्पन्न होता है परन्तु वह पहले किये हुये समस्त पापोंका नाश
करने वाला है। पूजा करने, वान देने आदिसे जो पुण्य होता है वह जिन आरम्भादिक पापोंसे उत्पन्न हुआ
था उन आरम्भादिक पापोंको अवश्य नष्ट कर देता है। जो पुरुष अभिषेक, पूजा, तीर्थयात्रा, प्रतिष्ठा, वान, 1 आदि कार्यों में पहले आरम्भजनित पाप जानकर नहीं करते हैं उनके वह महापुण्य भी उत्पन्न नहीं होता है । जिसने मुनिराजको वान नहीं दिया, मुनिराज आये हुये पोछे लौट गये तब उसके पुण्यका तो अभाव होता हो है किन्तु साथमें महापाप भी लगता है क्योंकि श्रावकके आरम्भपूर्वक ही पुण्य होता है।
इसके सिवाय एक बात यह भी है कि देवपूजा करने या दान वेनेसे अनेक जन्मोंके महापाप कट जाते हैं। तो फिर उस पूजा और वान वेनेमें जो आरम्भजनित थोड़ा-सा पाप हुआ है वह तो अवश्य हो कट जाता है । और उसी समय कट जाता है । यदि ऐसा न माना जायगा तो जिस पूजा, दानसे एक बारका पाप भी नहीं कट सका तो फिर जन्म-जन्मान्तरके पाप किस प्रकार कट सकते हैं ऐसा भी निश्चय करना पड़ेगा क्योंकि । जिससे कुत्ता भी न जीता गया वह हाथीको किस प्रकार जीत सकेगा। दूसरी बात यह है कि ऐसा ही मान ।
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