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________________ पर्चासागर [ २८४] केवलज्ञान पाकर मोक्ष पहुँचा । इस प्रकार निःशकित सहित आप लोगोंका कार्य दिखाई नहीं पड़ता। आप लोगोंके कार्य धनपालके समान विखाई देते हैं। ___ और देखो रेवती रानीके जिनवचनों में बढ़ श्रद्धान था उसको परोक्षाके लिये एक क्षुल्लक असाचारी । अपनी विद्यासे समवशरण सहित तीर्थकर केवली बनकर आया उसको वन्दना करनेके लिये राजा, प्रजा तथा अभयसेन मुनि आदि सब आये। परन्तु रेवती रानी न गई। राजा, प्रजा आदि सबने रेवतीको समझाया कि 'यहाँपर' पहले ब्रह्मा, विष्णु, महेश आये थे, सब तो तुम नहीं गई थीं, सो ठीक ही था क्योंकि सम्यम्वृष्टि जीवका यही धर्म है परन्तु यहाँ तो समवशरण सहित केवलज्ञानसे सुशोभित साक्षात तीर्थकर भगवान पधारे हैं। सो यहाँ तो अवश्य चलना चाहिये । रुस रानी याला कि ऐसा होना भगवानको आमासे बाहर है। इसलिए मैं नहीं जाती। तीर्थकर चौबीस होते हैं सोहो गये पच्चीसवा तीर्थकर होना शास्त्रों में बतलाया नहीं यदि केवलज्ञानादि सहित साक्षात तोर्यकरका रूप बना ले तो भी जैन शास्त्रोंकी आज्ञाके बिना जानेमें आज्ञा भं ॥ शोष लगता है और आज्ञा भंगका दोष लगनेसे अनन्त संसार परिभ्रमण करना पड़ता है। इसलिए यथार्थ । श्रवानी पुरुषको कभी ऐसा नहीं करना चाहिये । इस प्रकार रेवती रानीके श्रद्धानसे बढ़ता बनी रहो । यदि वह रानी वहाँ जाकर पूजा, बन्दना आदि करती तो क्या उसे मिथ्यात्वका दोष लगता? कभी नहीं । क्योंकि ब्रह्मा, विष्णु, महेशका तो रूप था हो नहीं। वहाँ तो केवलज्ञानी जिनलिंग थे तो भी शास्त्रको आज्ञा न होनेके कारण वह रानी वहां नहीं गई। दूसरी ओर अभव्यसेन मुनिको देखो वह ग्यारह अंग नौ पूर्वका पाठी था और जिन वचनोंमें भी श्रद्धान रखता था। यह महाव्रतोंको पालता था, सैकड़ोंको उपदेश देता था और स्वर्ग मोक्षका मार्ग दिखलाता। था परन्तु जिनवचनोंमें सन्देह होने के कारण क्षुल्लक विद्याधरके द्वारा बनाई हुई घास आदि वनस्पतिके ऊपर | उसने गमन किया, मायामयी सरोवरमें हाथसे पानी लिया और ब्रह्मा, विष्णु, महेश, केवलो सबकी वन्दनाको गया । इस प्रकार उसने भगवानके वचनोंने सन्देह करते हुए धर्मसाधन किया इसीलिए उसने अन्तमें निन्धगति पाई। इसी प्रकार आप लोगोंका कार्य भी सब सशंकित ही जान पड़ता है। और देखो इस पंचमकालके प्रारम्भमै श्रीभद्रबाहु पाँचवें श्रुतकेवलोके समय बारह वर्षका दुष्काल पड़ा A था उसमें रामल्य, स्थूलभद्र आदि बारह हजार मुनि भ्रष्ट हो गये थे। उन्होंने जिन बचनोंमें सशंकित होकर । [ २८
SR No.090116
Book TitleCharcha Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampalal Pandit
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages597
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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