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इस हकारको सदा शिव कल्याणरूप और मोक्ष वा मुक्तिका वाचक भी लिखा है। अथवा प्राणसंज्ञाको कहनेवाला है। इस प्रकार इसके और भी नाम हैं सो हो मातृका निघंटुमें लिखा है। सागर
। नभो वराहो नकुली हदो वामः पदस्थितः । सदाशिवोरुणप्राणो हकारश्च दयाननः॥ १८७]
इस प्रकार हकारका स्वरूप बतलाया।
उसके आगे चौथा अक्षर 'त' है । तकारका अर्थ शूरता और चोर है । सो हो एकवर्णमातृका निघंटुमें लिखा है-'शूरे चौरे च तः प्रोक्तः' सो यह मंगलाचरणमें शूरता अर्थ लेना चाहिये। शूरताका अर्थ सामर्थ्य वा बल है । सो अनंत बल भगवान अरहंतदेवमें है । इस प्रकार तकारका अर्य बतलाया । इस अनुक्रमसे अरहंत शब्दका अर्थ बतलाया।
आगे इसकी निरुक्ति बतलाते हैं। जो नमस्कारके अहति अर्थात् योग्य हों उनको अरहंत कहते हैं। । अथवा जो पूजाके आहे अर्थात् योग्य हों उनको अरहत कहते हैं । अथवा लोकमें भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्क
और वैमानिक ऐसे चार प्रकारके देव हैं। इन चारों प्रकारके क्षेत्रोंसे जो उत्तम हों उनको अरहंत कहते हैं। अथवा मोहनीय और अंतराय फर्मको अरि कहते हैं। अरि शब्दका पहला अक्षर 'अ' है । तथा ज्ञानाबरण और दर्शनावरणको रज कहते हैं। रजका पहला अक्षर 'र' है इस प्रकार 'अर' शब्दका अर्थ चारों घातिया कर्म होते है। ये चारों धातिया कर्म इस जीवके शत्रु है इसलिये इन चारों घातिया फर्मोंको अरि भी कहते हैं उन चारों । घातिया कर्मरूपी शत्रुओंको जो हता अर्थात् नाश करनेवाले हों उनको अरहंत वा अरिहंत कहते हैं। इस प्रकार अरहंत शब्द की निरुक्ति होती है। सो ही मूलाचारमें संस्कृत धारामें लिखा है। अर्हन्ति नमस्कारमी पूजाया अहंतः। वासुरोत्तमा लोके तथा अन्तिः। वा रजसः हतारः । अरेश्च हतारश्चाहतस्तेन उच्यते ।
यही बात गाथामें लिखी है । यथाअरिहंता णमोकारं अरिहा पूया सुरोत्तमा लोए। रजहंता अरिहंता अरहता तेण उच्चंते ।। ।।
इस प्रकार अरहंत पद अथवा अरिहंत पद सिद्ध होता है। अरिहंत शब्दमें जो पिछला हंत पद है वह हन हिंसागत्योः अर्थात् हिसार्थक और गत्यर्थक हन पातुसे