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"मूर्खस्य नास्त्यौषधम् ”
अर्थात् मूर्खको कोई औषधि नहीं है । प्रश्न- यदि कोई समझदार पढ़े लिखे विद्वान लोग भी प्रमाणरूप कथनको देखकर भी भान न करें तो फिर उनके लिये भी प्रमाणोंका लिखना व्यर्थ ही हुआ ।
उत्तर—जो प्रमाणरूप वचनोंको देखकर भी श्रद्धान न करें तो फिर उनको भी मूर्ख समझना चाहिये । क्योंकि क्रोध करना, हठ पकड़ना, दुर्वचन कहना, अपनी कथा कहते हो जाना और दूसरोंकी मानना ही नहीं, ये पाँच मूर्खोके चिन्ह है। लिखा भी है—
मूर्खस्य पंच चिह्नानि कोधी दुर्वचनी तथा । हठी च दृढवादी च परोक्तं नैव मन्यते । इसलिये ऐसे लोगों के सामने भी मौन धारण करना हो श्रेष्ठ है। लिखा भी है
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'दोषवावे च मौनम्' अर्थात् जहाँ दोषवाद हो, जहाँ किसीको बुरा कहना पड़े वहाँपर भी मौन धारण करना श्रेष्ठ है । यह न्याय सब जगह लगा लेना चाहिये । मूर्ख लोगोंको उपदेश देनेमें बड़े-बड़े बोष उत्पन्न होते हैं। लिखा भी है
मूर्खशिष्योपदेशेन दुष्टस्त्रीभाषणेन च । पयःपानं भुजंगानां केवलं विषवर्द्धनं ॥
अर्थ - मूर्ख शिष्यको उपवेश वेनेसे, दुष्ट स्त्रीके साथ बातचीत करनेसे और साँपको पिलाने से दूध केवल विष हो बढ़ता है । इसलिये मूर्खोके लिये वा दुष्ट पुरुषोंके लिये यह ग्रन्थ नहीं है। यह वर्षासागर ग्रन्थ तो सम्यग्दृष्टी सज्जन संत जिनाशाको प्रतिपालन करनेवाले भव्य जीवोंके लिये है । इसके सुनने-सुनाने से पढ़तेमोक्ष इन चारों पढ़ानेसे, लिखने- लिखाने से केवल धर्मामुतकी ही वृद्धि होती है तथा धर्म, अर्थ, काम, पार्थोकी सिद्धि होती है। ऐसा यह शास्त्र सवा जय शील हो ।
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इस प्रकार ऊपर लिखे हुए बोसौ चौअन प्रश्नोत्तरोंसे सुशोभित यह चर्चासागर ग्रन्थ पूर्वाचायोंके किए हुए सिद्धांत पुराण चरित्र आदिके अनुसार अपनी बुद्धिसे पूर्ण किया है। धर्मात्मा भव्य पुरुषोंको स्वाध्यायके पांचों भेवोंसे इसकी प्रवृत्ति करनी चाहिये ।
यदि इस ग्रन्थ में मेरी मंद बुद्धिके द्वारा कुछ विपरीत अर्थ लिख गया हो अथवा विरुद्ध श्रद्धान ज्ञान आचरण आदि लिख गया हो तो विशेष जाननेवाले सम्यग्दृष्टी साधर्मों सज्जनोंको हमपर कमाभाव धारण
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