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कर इसको शुद्ध कर लेना चाहिये । मेरी मंद बुद्धिपर हँसना नहीं चाहिये इसी प्रकार हठपाही बनवायी बुर्जन
पुरषों को भी हमपर क्षमा करनी चाहिये। यदि इस शास्त्रमें आप लोगोंको अपने प्रवान, ज्ञान, आचरणके । मार योग्य कथन न मिले तो मूल शास्त्रोंके गाथा श्लोक आदिको मिलाकर श्रद्धान कर लेना चाहिये। यदि हमने PM, मूल शास्त्रों के विरुद्ध लिखा हो तो उन ग्रन्थोंकी टोकाओंसे तथा अन्य मूल ग्रन्थोंसे शुखकर हमपर समाभाव।
धारण करना चाहिये । इस प्रकार हमारी ये दो प्रार्थनाएं हैं। राग-द्वेषको छोड़कर श्री वीतरागके वचनोंके ।
पर कहनेवाले गणधरोंके वचनों पर तथा गणघराधिकोंके वचनोंके अनसार कहनेवाले आचार्योके वचनोंपर अहान, शान, आचरण कर अपना आस्मधर्म प्रतिपालन करना चाहिये ।
यह चर्चासागर ग्रंथ हमने अनेक शास्त्रोंको देखकर लिखा है सो इसका पठनपाठन विचार आदि करना चाहिये । इसमें प्रमाद नहीं करना चाहिये । यह ग्रन्य हमने अपने और दूसरोंके उपकारके लिए लिखा है। है। जैनवचन अगाध हैं गणपराविक देव भी इसका पार नहीं पाते। फिर भला हमारे समान अत्यन्त तुच्छ । बुद्धिको धारण करनेवाले इसको कैसे कह सकते हैं। इसलिए हमारी जिसनो बुद्धि यो उतना ही हममे लिखा है। यह सिधाची अपार है इसरि ऐसे जिन बधीको हम बारम्बार नमस्कार करते हैं। जो कोई मनुष्य । " कोई शुभकार्य करता है और अपने शुभकार्यको सिद्धि हो जानेपर भी उसके पार तक नहीं पहुंच सकता तो वह अपने कार्यको सिद्धि होने तक उस कार्यको सिद्धि कर लेता है । और शेषको नमस्कार कर लेता है इसी प्रकार हमने भी अपने कार्यको सिद्धि कर शेष गुणों से सुशोभित अपने इष्टदेवको ममस्कार किया है। इस प्रकार यह चर्चासागर ग्रन्थ समाप्त हुआ।
आगे इस शास्त्रके बनानेका कारण लिखते हैं। श्री जिनवर श्री सिद्ध मुल बेहउ जिनगुण रिख । सूरी पाठक साधु सब वेह सिद्धि फुनि ऋखि ॥ १॥ चर्चासागर शास्त्रकर कीनो सो सुनि भ्रात । समाचार ताके कहूँ संशयनाशक बात ॥ २॥
स्वस्तीश्री गर्गा सुवेश जाहि, शुभ झालावाड वसै ता माहिं । तहाँ झल्लरपत्तन पुरि अनूप, तहं पृथ्वीराज शुभ जानि भूप ॥ ३ ॥ सहां शांतिनाथ फनि पाश्र्वनाथ, श्रीऋषभदेवके विम्म साथ। जिन चौबीसी युत भवन तीन, शोभा लिझते ह पापछीन ॥ ४ ॥