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पासागर
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वर्ष तक किये जाते हैं सो उसे बत्तीस वर्ष तक करना चाहिये । पोछे अपनी शक्तिके अनुसार पूजनाविक विधान कर व्रतोंका विसर्जन करे । सो हो अनंतवतको कथामें लिखा है
अभावे तु प्रतिष्ठायाः शांतिक कार्यमंजसा ।
तस्याप्यभावे कर्तरं द्विगुण राहिलामका । । यही बात श्रीवसुनंदि सिद्धांतचक्रवर्ती विरचित श्रावकाचारमें फायक्लेशाधिकार में लिखी है।
उज्जवण विहिणंतरइ काउजइ कोवि अस्थपरिहीणो।।
तो विगुणं कायवा उवासविहाणपयत्तेण ॥३६०॥ इसको टोकामें लिखा है
उद्यापनविधि न समर्थः कर्तुं यदि कोपि अर्थहीनः ।
तर्हि द्विगुणं कर्तव्यं उपवासादि विधानकं प्रयत्नेन ।। अर्थात् यदि कोई धनहीन हो और व्रतोंके उद्यापनको विधिको न करे तो उसे उपवास मावि संपूर्ण #विधान प्रयत्नपूर्वक दूने करने चाहिये ऐसा शास्त्रों में लिखा है सो देख लेना। यदि जिनप्रतिष्ठापूर्वक उद्यापन । करनेको शक्ति न हो तो उन व्रतोंसे अरुचि नहीं करनी चाहिये । अपनी शक्तिके अनुसार तपको बढ़ाने के लिये अपने अनेक व्रतोंको विधिपूर्वक दूर कर लेने चाहिये। इन व्रतोंका अलग-अलग फल व्रतकथाकोश आवि अनेक शास्त्रों में लिखा है वहांसे जान लेना चाहिये । तपके भेदोंमें अनेक व्रत हैं सो कोको निर्जराके लिये हैं इसलिये इनसे अरुचि नहीं करनी चाहिये । सो ही मोक्षशास्त्रमें लिखा है--
तपसा निर्जरा च । --अध्याय ९ सूत्र सं० ३ । अर्थात् तपसे संबर भी होता है और कोको निर्जरा भी होती है।
१३३-चर्चा एकसौ तेतीसवीं प्रश्न-ऊपर लिखे हुए व्रतों से कोई मनुष्य कुछ व्रत ले लेवे और कुछ दिन तक उनका पालन करे