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पर्चासागर [२१५ ]
.. ." विषयादिभिः। सदसद्धीक्षणं स्वप्ने समाधिश्च भवेन्मृतौ ॥ २ ॥ इस प्रकार यह गणधरवलय ध है। इसको हमला, शुश परिप्तामोसे, शुद्ध चित्तसे पवित्र होकर, । पवित्र वस्त्र धारण कर, ध्यान, जप, पूजन, सेवन आदि करना चाहिये। भव्यजीवोंको अपने दोनों लोकोंके कल्याणके लिये इसका आराधन करना योग्य है । गणधरवलय चक्र पृष्ठ २१५ ( क ) में देखो।
१६३-चर्चा एकसौ तिरेसठवीं प्रश्न-वोडशकारण यंत्रकी विधि तथा पूजाको विधि क्या है ?
समाधान--दर्शनविशुद्धि आदि सोलह कारण सब तीर्थखर नामकर्मके कारण हैं । इन सोलहकारणोंके बिना तीर्थर प्रकृतिका बंध नहीं होता इसीलिए इनको कारण कहते हैं। आगे उनका थोड़ा-सा स्वरूप लिखते हैं।
पहला कारण दर्शनविशुद्धि है, इसको घात करनेवाली मिष्यात्व, सम्यमिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृतिमिष्याव ये तीन तो दर्शनमोहनीयको प्रकृतियां तथा अनन्तानुबंधो क्रोष, मान, माया, लोभ ये चार चारित्रमोहनीयको । प्रकृतियाँ इस प्रकार सात प्रकृतियां हैं। इन सातों प्रकृतियोंका जिसके केवलो भगवान अथवा श्रुतकेवलोके ।। निकट क्षय हो जाय उसके क्षायिक सम्यक्त्व होता है । जिस पुरुषके क्षायिक सम्यक्त्व हो, जो अतिचाररहित । सातों व्यसनोंका त्यागो हो, निरतिचार आठों मूलगुणोंका धारण करनेवाला हो तथा पांच अणुक्त अथवा पांच महावतोंसे सुशोभित हो, शंकाविक पच्चीस दोषोंसे और पांचों अतिचारोंसे रहित हो, तिःशक्ति आवि आठों अंग और इकईस गुणोंसे परिपूर्ण हो, उसके सोलह कारणोंमेसे वशनविद्धि नामका तीर्थकर प्रकृतिका पहला कारण होता है। इस वानविशुद्धि के बिना तीर्थकर प्रकृतिका बंध नहीं होता। इसलिये यह सब कारणोंमें प्रथम कारण अथवा मख्य कारण है। भावार्थ-बाकीके पन्द्रह कारण भी तीथंकर प्रकृतिके कारण हैं परन्त इस वर्शनविशुद्धि नामके पहले कारणका होना अत्यन्त दुर्लभ है, ऐसा निश्चय है । इस प्रकार यह दर्शनविशुद्धि। नामका पहला कारण है।
दूसरा कारण विनयसम्पन्मता है । सम्यग्दर्यानपूर्वक मान, चारित्र, तपको धारण करना मन, बचन, है