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पूज्यः स प्राप्तकैवल्यो निष्ठितार्थो जिनेश्वरः । सार्वः सर्वेन्द्रवंद्यांधिःप्रातिहार्यादिसंयुतः॥
आह्वाम, स्थापन, सन्निधिकरण, पूजा और विसर्जन इस प्रकार पंचोपचारी पूजाफा स्वरूप जो पहले। बर्चासागर कहा है उसका करना पूजा है। पूजा करना पुण्यवृद्धिका कारण है यही पूजाका हेतु है । मोक्ष प्राप्त होना ३१३ ] पूजाका अन्तिम फल है। पूजकका स्वरूप अभी आगे बतलाते हैं । इस प्रकार पूजाके पांच भेद हैं सो ही पूजा
सारमें लिखा हैम पंचोपचारविधिना पंचशद्धयान्विनाईतः। भव्यात्माचरणं पूजा प्रतिष्ठादिक्रियाविधिः ।।
पूज्यो जिनपतिः पूजा पुण्यहेतुः जिनार्चना ।
फलं साभ्युदयामुक्ति भव्यात्मा पूजकः स्मृतः ॥ ऐसा क्रमसे समझ लेना चाहिये। आगे पूजक अर्थात् पूजा करनेवालेका विशेष स्वरूप लिखते हैं। जो जाति और कुलसे शुद्ध हो, शीलवान हो, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य वा उत्तम शूद्र हो, बतोंको वृढ़ताके साथ पालन करनेवाला, आचरण जिसके वृढ़ हों, जो सत्य बोलनेवाला हो, शौचाचारको पालन करनेवाला हो, मित्र-बान्धव आदिके द्वारा पवित्र हो, ( जातिव्युत न हो) अपने गुरुके दिये हुए मन्त्रसे सुशोभित हो ( अष्ट। मलगण और यज्ञोपवीत आधिको धारण करनेवाला हो) और जो जीवोंकी हिंसासे अत्यन्त दूर हो ऐसा मनुष्य। भगवानको पूजा करनेका अधिकारी होता है । सो ही पूजासारमें लिखा है-- ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यःशद्रो वाथ सुशीलवान् । दृढव्रतो दृढाचारः सत्यशोचसमन्वितः। कुलेन जात्या संशुद्धः मित्रबंधादिभिः शुचिः । गुरूपदिष्टमंत्रादयः प्राणिवधादिदुरगः ।।
आगे पूजा करनेघालेका लक्षण और भी विशेषतासे कहते हैं। जो पवित्र हो ( जिसके कुल में धरेजा।। या विषया विवाह न हो) जो प्रसन्न यवन हो, सदा प्रसन्न रहनेवाला हो, जो गुरुका भक्त हो, तोंको दृढ़ता१. शूद्रके लिये जो पूजाका अधिकार लिखा है सो इसका अभिप्राय यह है कि जिन शूद्रोंमें विधवाका घरेजा नहीं होता ऐसे शूद्रों-
को उत्तम शूद्र कहते हैं ऐसे शूदोंको केवल दूरसे पूजा करनेका अधिकार है उसको अभिषेक, चरणस्पर्श आदि करनेका अधिकार नहीं है । जिन कुलोंमें विधवाओंका घरेजा होता है वे चाहे ब्राह्मण हों चाहे देश्य हों और चाहे शूद्र हों वे सब निंद्य शूद्र कहलाते हैं ऐसे लोगोंको पूजा आदि करनेका कोई अधिकार नहीं है।
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