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सागर
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के साथ पालन करनेवाला हो, दयालु हो, चतुर हो, जप, तप कर सहित हो और बीजाक्षरोंको धारण करनेवाला हो वही भगवानकी पूजा करनेका अधिकारी होता है । सो ही पूजासारमें लिखा है
शुचिः प्रसन्नो गुरुदेवभक्तो दृढव्रतः सत्यदयासमेतः । दक्षः पटुः वीजपदावधारी जिनेन्द्रपूजासु स एव शस्तः ॥
आगे दूसरे प्रकारसे भी पूजा करनेवालेका स्वरूप लिखते हैं। जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इन तीनों क्षणोंमेंसे कोई 'हो, जो अत्यन्त रूपवान हो, सम्यग्दृष्टी हो, अणुव्रती हो, चतुर हो, जो सदा सदाचारका पालन करनेवाला हो, पंडित हो वह पूजा करनेका अधिकारी होता है। को हो लिखा है-त्रैवर्णिकोतिरूपांगः सम्यग्दृष्टिरणुव्रती । चतुरः शौचवान् विद्वान् योग्यः स्याज्जिनपूजने ॥ ऐसा जिनसंहिता के तीसरे सर्गमें लिखा है ।
१७३ - चर्चा एकसो तिहत्तरखीं
प्रश्न - - पूजा करनेवालेका स्वरूप तो जाना परन्तु जो पूजा करने योग्य नहीं है उनका स्वरूप क्या है ?
समाधान -- साधारण रीतिसे तो यह समझ लेना चाहिये कि जो ऊपर लिखे कथनसे विपरीत चलनेवाला पुरुष है वही पूजा करनेके अयोग्य है। तथा विशेष रीतिसे इतना और समझ लेना चाहिये कि पूजा करनेके वे ही अधिकारी हैं जो कुलहीन न हो, मिथ्यादृष्टी न हो, पापी न हो, मूर्ख न हो, निकृष्ट क्रियावाला और निकृष्ट आचरणवाला न हो, किसी रोगसे दूषित न हो अर्थात् वाद, खुजली, विचचिका, कोढ़, मेवा आविक रोग न हो, जिसका मुँह बुरा बिखने वाला न हो, जो अन्धा, बहरा, काणा, ऐखाताना न हो, जिसके शरीर पर सफेद फूल न हो, जो गूंगा, लंगड़ा, पागल, टोंटा न हो तथा और २ ऐसे ही रोगोंसे पीड़ित न हो, जिसके शरीरमें अधिक अंग न हो, छह उँगली न हो, हाथ, पैर आबिमें कोई अंग अधिक न हो, कोई अंग कम १. इस श्लोक ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य हो पूजा करनेके अधिकारी लिखे हैं। इससे सिद्ध होता है कि शूद्रोंको पूर्ण पूजा करनेका ( अभिषेक पूर्वक पूजा करनेका) अधिकार नहीं है। ऐसी पूजा करनेका अधिकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यको हो है । शूद्र केवल दूरसे ही द्रव्य चढ़ा सकते हैं वे ब्राह्मण, यात्रिय, वैश्योंके साथ मिलकर भी पूजा नहीं कर सकते। अलग रहकर ही द्रव्य चढ़ा सकते हैं। आगेकी चर्चा में ही शूद्रोंको पूजा करनेका निषेध लिखा है।
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