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सागर १२९ ।
अच्छा करनेके क्यारूप परिणाम होते हैं इसलिए उसमें पापबंध नहीं है किन्तु पुष्यबन्ध हो होता है। क्योंकि । करनेवालेके बयारूप परिणाम हैं, कोमलभाव हैं और उस घाव, फोड़ेको अस्छा करनेका उपाय मात्र करता है । उसके हृदय में दुःख देनेका किंचित् भाव भी नहीं है। इसलिए किसी घाव या फोड़ेको अच्छा करनेके लिये शस्त्रसे चीर-फाड़ करना भी योग्य ही है। उसमें पापका बंध नहीं होता । सो हो मोक्ष-शास्त्रको श्रुतसागरी टोकामें लिखा हैन दुखं न सुखं यद्धेतुरिष्टचिकिसिमले चिनिनलागत सुताय यादगुःखमथवा सुखम् ।।
अर्थात्-चिकित्सा वा उपाय ( इलाज ) करनेसे सुख देने अथवा दुःख वेनेका अभिप्राय नहीं होता किन्तु उस व्याधिको दूर करनेका अभिप्राय रहता है । फिर चिकित्सा करते समय उस रोगोको चाहे सुख हो । वा दुःख हो .
प्रश्न-यदि उपाय करते हुए उसकी वेदनासे मुनिका मरण हो जाय लब तो पापका बंध होगा?
उत्तर-नहीं, तब भी पापका बंध नहीं हो सकता क्योंकि उस उपायसे उस व्याधिको दूर करनेका । अभिप्राय है उनको दुःख देने वा मारनेका अभिप्राय नहीं है। जहां मारने वा दुःख देनेका अभिप्राय होता है ।
वहाँ हिंसा न होने पर भी पापका यंध होता है । सो हो पुरुषार्थसिचघुपायमें लिखा है-- हिंसाफलमपरस्य तु ददात्यहिंसातु परिणामे। इतरस्य पुनर्हिसा दिशत्यहिंसाफलं नान्यत्॥ अर्थात् कोई अहिंसा हिंसाका फल देती है और कोई हिंसाका फल देती है।
२४४-चर्चा दोसौ चवालीसवीं चार्वाक्रमतवाला कहता है कि आत्मा कोई पदार्थ नहीं है । यदि आत्मा होता तो दिखाई पड़ता परंतु आत्मा कोई पदार्थ है नहीं, इसलिए दिखाई भी नहीं पड़ता । यदि कहा जाय कि जन्म-मरण होनेसे आत्मा मानना पड़ता है सो ठीक नहीं है । क्योंकि जन्म-मरण करने पर भी आज तक आत्मा किसीको दिखाई नहीं । पड़ा है इसलिये मोक्ष मानना और मोक्षका उपाय करना व्यर्थ है।
प्रश्न—सांख्यमतवाला कहता है कि आत्मा तो है पर वह सदा मुक्त है । जो सदा मुक्त है उसके फिर । मोक्षको प्राप्ति मानना वा मुक्त होनेका उपाय करना सब व्यर्थ है । इस प्रकार लोग मानते हैं सो क्या ठीक है?
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