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चर्चासागर
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I उसको कलिकुण्डवण्ड कहते हैं । उस कलिकुण्डके स्वामी श्रीपाश्र्वनाथको कलिकुण्डवण्डस्वामी कहते हैं । भावार्थअनेक प्रकारके क्लेशों के समूहको दूर करनेके लिये भगवान पार्श्वनाथ समर्थ हैं। उन्होंसे सम्बन्ध रखनेवाला यह कलिकुण्डदंडस्वामीका यन्त्र है । उसीको आगे लिखते हैं । इसके लिये नीचे लिखा काव्य है
हकारं ब्रह्मरुद्धं स्वपरिकलितं वनरेखाष्टभिन्नं, वजस्यानांतराले प्रणवमनुपमानाहतं सासणं च । वर्णान तोद्यान सपिंडान हम मर घझसखान वेष्टयेत्तद्वदंते,
बजाणां यंत्रमेतत् परमसुशुभं दुष्ट विद्याविनाशम् । अर्थ-एतत् अर्थात् यह यन्त्र परमोत्कृष्ट है और बहुत ही शुभ करनेवाला है। दुष्ट जनोंके द्वारा उत्पन्न हुई दुष्ट विद्याओंका नाश करनेवाला है । भावार्थ-परशत्रुकृत आकर्षण, स्तम्भन, उच्चाटन, मोहन, वशीकरण, मारण इन छहों प्रकारको दुष्ट विद्याओंका नाश करनेवाला है। इस यात्रा माराधन करनेसे दूसरोंकी ( शत्रुओंको ) की हुई दुष्ट विद्याओंका खंग्न होता है तथा अभीष्ट फलको सिवि होती है । आगे, उसी यंत्रको बतलाते है
सबसे पहले मध्यको कणिकामें है.' ऐसा हंकार लिखना चाहिये। उसके पास चारों ओर 'ॐ ह्रीं ॥ श्री ऐ बलों अहं कलिकुण्डदंडस्वामिने अतुलबलवीरपराक्रमाय अभीष्टसिद्धिं कुरु कुरु आत्मवियां रक्ष रक्ष पर-1 विधा छिद छिच भिद भिव स्फ्रां स्की स्ळू स्फः हं. फट् स्वाहा' यह मूल मन्त्र लिखना चाहिये उसको ब्रह्मरुद्ध अर्थात् चौवह स्वरोंसे वेष्ठित करना चाहिये । फिर सोलह स्वरोंसे बलयाकार बनाना चाहिये फिर तीन वलय देकर उसके बाहर चारों दिशा और चारों विदिशाओं में अलग-अलग माठ वद्य लिखना चाहिये। उन पत्रोंके । बीचमें दो-दो प्रणव बीजको अनाहतसे घेरकर उसको ह्रींकारसे वेष्ठित करना चाहिये । अर्थात् एक-एक कोठेमें दो-दो जगह ॐ लिखकर उसके चारों ओर अनाहत बनाकर उस अताहतको ह्रींकारसे घेष्ठित करना चाहिये। तथा उन वनोंके बीच-बीच में अनुक्रमसे अकारादिक स्वर, कवर्ग, वर्ग, टवर्ग, तवर्ग, पवर्ग, यकरादिक अन्तस्थ और शकाराविक ऊष्म लिखने चाहिये । अर्थात् पहले कोठमें अ आ इ ई उ ऊ ऋऋ ल ल ए ऐ ओ औ
अः लिखना चाहिये । दूसरे कोठेमें क ख ग घ तीसरे कोठेमे व नाम चोयमें टम पांचवें ।
मयमचाचा -चाचाचाका
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