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सागर
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हो उसको अहं कहते हैं । अथवा विशेषकर रहः अर्थात् अन्तराय कर्मके घात करनेके योग्य हो उसको अहं कहते हैं अथवा जो पूजाके अहं अर्थात् योग्य हो उसको कहते हैं
लिखा है
मोहारि सर्व दोषारिघातकेभ्यः सदा हत रहोभ्यः । विरतिरहस्कृतिभ्यः पूजाद्भ्यो नमोईद्भ्यः ॥
इसके सिवाय इस अहं पवको ब्रह्मवाचक अथवा परमेष्ठी वाचक बतलाया है। सो ही लिखा हैअर्हमित्यक्षरं ब्रह्मवाचकं परमेष्ठिनः ।
इसी मन्त्रको सिद्धचक्रका बोज बतलाया है ।
यथा -- 'सिद्धचक्रस्य सब्बीजम्' ऐसे इस अहं पदको हम लोग सवा निरन्तर प्रणाम करते हैं। सो लिखा भी है- "सर्वतः प्रणमाम्यहम् ।”
इस प्रकार णमोकार मन्त्रमें जो 'नमो अरहंताणं' ऐसा प्रथम पद है उसका स्वरूप बसलाया ।
अब आगे णमो सिद्धाणं पदको सिद्ध करते हैं इसका पहला अक्षर सि है। उसका अर्थ सिद्ध है । सो ही एकाक्षरी वर्ण मात्रा कोशमें लिखा है 'सि सिद्धी च' सिद्ध परमात्माके हो समस्त कार्य सिद्ध हो गये हैं कोई कार्य बाकी नहीं रहा है इसलिए सिद्ध भगवानको ही सिद्ध कहते हैं। सिद्ध भगवान निष्ठितार्थ है अर्थात् उनके समस्त अर्थ सिद्ध हो गये हैं तथा वरिष्ठ हैं, सर्वोत्तम हैं इसलिए उनको सिद्ध कहते हैं । सामायिक पाठ लिखा भी है
सिद्धेभ्यो निष्ठितार्थेभ्यो वरिष्ठेभ्यो कृतान्तरः ।
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भगवान सिद्ध परमेष्ठी लप, संयम, चारित्र, वर्शन, ज्ञान आदि सब हो सिद्धियाँ, ऋद्धियाँ प्राप्त हो चुकी हैं इसलिये ही उनको सिद्ध कहते हैं । सामायिक पाठमें लिखा हैतवसिद्धे णयसिद्धे संयमसिद्धे चरितसिद्धे य । णाणमयं दंसणमयं सिद्धं सिरसा णमस्सामि ॥ तथा धर्मार्थकाममोक्षादिसकलपुरुषार्थानां सिद्धिर्भवति येषां ते सिद्धाः । तथा स्वात्मोपलब्धीनां सिद्धिभवति येषां ते सिद्धाः अर्थात् धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों ही पुरुषार्थ जिनके सिद्ध हो गये हों उनको सिद्ध
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