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________________ चर्चासागर ३९१] । कहते हैं । अथवा जिनको अपने शुद्ध आत्माको प्राप्ति हो गई हो उनको सिद्ध कहते हैं ऐसी सिद्ध शब्दको । निरुषित है। अब आगे दूसरे प्रकारके सिद्ध शब्बको निरुक्ति बतलाते हैं। यह जीव ज्ञानावरणादि आठों कोके द्वारा अनादिकालसे दुःखी हो रहा है। वह जीव जब कर्मरूप प्रकृतियोंके संक्रमण, उदय, उदीर्णा, उत्कर्षण नादि 1 से रहित हुए सित अर्थात् कर्मबंधको ध्वस्त अर्थात् नाश कर देता है और सम्यग्ज्ञानमय शुद्ध आत्मभावको निषत्त अर्थात् प्राप्त होता है तब उसको सिद्ध कहते हैं। सोही मूलाचारमें लिखा है-- दीर्घकाखमयं जन्तुरुषितश्चाष्टकर्मसु । सिते ध्वस्ते निधत्ते च सिद्धत्वमुपगच्छति ॥ गाथामें भी लिया .. दीहकालमयं जन्तु उसिदो अटुकम्महि । सिदे धत्ते निधत्ते य सिद्धत्तमुवगच्छइ ॥ अब आगे-यह जीव सिद्धत्व पदको किस प्रकार प्राप्त होता है सो ही उदाहरण देकर बतलाते हैं जावेशनी अर्थात घल्हा वा भट्टी तो यह शरीर है। इन्द्रियां ही ऐरण (घन जमीनमें गाइनेका बहुत बड़ा लोहा ) हतोड़ा, संशसा आदि उपकरण है। मन हो आकरी अर्थात् केवलज्ञानरूप जानकार उपाध्याय था लुहार है और यह आत्मा धातु है । इस आत्मारूपो षातुको निर्मल करने के लिये अग्निमें वहन करना । चाहिये । जिस प्रकार चतुर लुहार धातुओंको अग्निमें पकाकर शुद्ध कर लेता है उसी प्रकार शरीररूपी भट्ठी या चूल्हेमें बाईस परोषहरूपी अग्निके द्वारा इन्द्रियरूपी हथोड़े, संडासी आदि उपकरणों के कर्म रूपो मैलका नाश कर तथा शरीर और इन्द्रियरूपी भट्ठो वा औजारोंको छोड़कर यह आत्मरूप सुवर्ण धातु अपने आप शुद्ध हो जाता है तथा केवलज्ञानरूप सिद्धत्वपदको प्राप्त हो जाता है। उसोको सिद्ध कहते हैं। इस उदाहरणके । ई समान उपाय करनेसे यह आत्मा सिद्ध हो जाता है । सो हो मूलाचारमें लिखा हैआवेशनीशरीरं इन्द्रियाभांडानि मन वा आकरी ध्यातव्यं जीवलोहं द्वाविंशतिपरीषहाग्निभिः। ___गाथामें भी लिखा हैआवेसणी सरीरदियभंडो मणो व आगरियो । धमिदव्व जीवलोहे वावीसपरीसहग्गीहि ॥ इस प्रकार सिद्धपक्की निरुक्ति है।
SR No.090116
Book TitleCharcha Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampalal Pandit
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages597
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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