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बीमार ३१५ ]
इसका द्वितीयाका बहुवचन शस् विभक्ति लगाकर अरहन्त, सिद्ध था आचार्य के समान उपाध्यायान बनाना चाहिये । उसके पहले नमो शब्द लगाकर नमो 'उपाध्यायान्' अथवा 'नमः उपाध्यायेभ्यः' पद सिद्ध होता है। इसोको प्राकृतभाषामें 'णमो उवज्लायाणं' कहते हैं।
संसारमें ब्राह्मणोंमें भी बहुतसे उपाध्याय वा पाठक कहलाते हैं। परन्तु उनमें उपाध्यायोंके गुण नहीं म हैं वे केवल नाममात्रके उपाध्याय हैं जिस प्रकार वैष्णवों में एक वासुदेव हुआ है उसको कथा भागवत नामके
पुराणमें लिखी है। सा जमार उपको 'भो नालाप्राचार्य, काथ्याय वा पाठक समझना चाहिये । वे सच्चे । ब्राह्मण वा पाठक नहीं हैं।
जो शान्त हो, दांत वा तपश्चरणके क्लेश सहनेमें समर्थ हो, जिसके कर्ण शास्त्रकरि परिपूर्ण हो, इन्द्रियोंको दमन करनेवाला हो, परिग्रह त्यागो हो और जो गृहस्थोंको तरणतारण करनेमें समर्थ हो उसको ब्राह्मण कहते हैं। जिसने स्त्रीमात्रका त्याग कर दिया है, जो आचारवान् है, जिसने भोगोंका त्याग कर दिया। है और जो जितेन्द्रिय है उसीको गुरु कहते हैं। यही समस्त प्राणियोंको अभयदान देने योग्य है। ब्राह्मण ब्रह्मचयंसे ही कहलाता है जैसे जो शिल्पोका काम करे उसको शिलावट कहते हैं । जो ब्रह्मचर्य पालन नहीं करता। वह केवल नाम मात्रका ब्राह्मण है । जैसे बरसातमें होनेवाले लालकीड़े वा वीरबहटोको संस्कृतमें इन्द्रगोप कहते हैं। उसमें इन्द्रगोपके गुण नहीं है किन्तु नाम मात्रसे कोडेको हो इन्द्रगोप कहते हैं । उसी प्रकार बिना ब्रह्मचर्यके ब्राह्मण भी नाममात्रके ही समझना चाहिये । वह गुणसे ब्राह्मण नहीं है ।
जिसके सत्यता हो, तप हो, इन्द्रियोंका निग्रह हो, समस्त प्राणियों में क्या हो वही ब्राह्मण कहलाता है। जिसके सत्य नहीं है, तप नहीं है, इन्द्रियाँ वशमें नहीं हैं और जीवोंको क्या नहीं है वह ब्राह्मण नहीं है किंतु चांडाल है। क्योंकि ये बांगलके लक्षण हैं ब्राह्मणके नहीं हैं। ऐसा महाभारतके शांतिपर्वमें लिखा है। यथा
ये शान्तदाता श्रुतपूर्णकर्णा जितेन्द्रियाः प्राणिवधे निवृत्ताः।
परिग्रहैः संकुचिता गृहस्थास्ते ब्राह्मणास्तारयितु समर्थाः ।। त्यकदाराः सदाचारा मुक्तभोगा जितेन्द्रियाः । जायन्ते गुरवो नित्यं सर्वभूताभयप्रदाः॥
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