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चर्यासागर [१८]
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पूजा करनेवालेको तिलक लगाना चाहिये । पूजा करनेवालेको किसी अन्य चन्दनसे तिलक लगाना योग्य नहीं है वह तिलक जैनमतमें छः प्रकारका बतलाया है। पहला आतपत्र अर्थात् तीन छत्रके आकारका यथा-- दूसरा धर्म चक्रके आकारका गोल यथा • तीसरा अर्द्धचक्रके आकारका अर्थात् अष्टमीके चन्द्रमाके आकारका यथा । चौथा त्रिशूल के आकारका अर्थात् ऊपरकी ओर तीन रेखा यथा । पाँचवां मानस्तम्भके आकारका यया । । छटा सिंहपीठ वा सिंहासनके आकारका धर्मचक्रके आकारका छोटा विदोके समान गोल यथा
। इनका अभिप्राय यह है। भगवानके ऊपर तीन छत्र शोभायमान हैं उनको हृदयमें विचार कर आतपत्र बा छत्रके आकारका तिलक करना चाहिये। भगवान के यज्ञदेव धर्मचक्रको अपने मस्तकपर लिये हुए चलते हैं उस धर्मचक्रको चितवन कर चक्रके आकारका गोल तिलक करना चाहिये। तथा सुदर्शन आदि पाँचों मेरु पर्वतोंपर पांडक वनमें भगवानके जन्म कल्याणके समय अभिषेक करनेके लिये अर्द्ध चन्द्राकार स्फटिक आदि अनेक मणियोंकी बनी पांडुक शिला है। उसपर रक्ने हुए सिंहासनोंपर इन्द्र भगवानको विराजमान कर बड़े । उत्सवके साथ क्षीरसागरके जलसे भगवानका अभिषेक करता है। उस पांडुक शिलाको स्मरण कर अखं। चन्द्राकार तिलक करना चाहिये । तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र इन तीनों रत्नत्रयोंका चितवन कर त्रिशूलके आकारका अथवा त्रिदण्डाकार तिलक करना चाहिये । समवशरणके बाह्य दरवाजे के पास मानस्तम्भ है। और उसपर भगवान अरहन्त देवकी प्रतिमा विराजमान हैं उस मानस्तम्भको चितवन कर मान
स्तम्भके आकारका तिलक करना चाहिये। भगवानके विराजमान होनेके सिंहासनको अपने मस्तकपर रखनेका ॥ भाव रखकर सिंहासनके आकारका तिलक करना चाहिये । इस प्रकार छहों तिलकोंके भाव बसलाये हैं।
यदि ललाटपर तीन छत्र तथा अर्ब चंद्राकारका तिलक किया हो तो अपने हवयपर वोनों भुजाओंमें और कण्ठ में त्रिवण्डाकार तिलक करना चाहिए । यदि ललाट पर मानस्तम्भ वा सिंहासनके आकारका तिलक किया हो तो भुजा, कण्ठ आदि स्थानों में बिबण्ड तथा चक्राकार तिलक करना चाहिए। इन सब तिलकोने । पहले गन्धका लेपकर उसके ऊपर त्रिशूल आदिका आकार बनाना चाहिए। तीन छत्राकार और अर्ध चन्द्रा
कार तो आजी रेखा बनाकर बनाना चाहिए, त्रिदण्ड और मानस्तम्भ ऊपरको ओर रेखा कर बनाना चाहिए। तथा धर्मचक्र और सिंहासन गोल आकारका बनाना चाहिए । मानस्तम्भ तो एक अंगुल चौड़ा करना चाहिए।
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