SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 562
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्षासागर [ ५४१ ] वासनारूपी महा अंधकार से उनके नेत्र सवा बंद रहते है और अनेक चिंता रूपों ज्वरसे जिनका आत्मा सदा संतप्त रहता है ऐसे घरमें रहनेवाले गृहस्थोंके आत्महितकी सिद्धि किस प्रकार हो सकती है अर्थात् कभी नहीं हो सकती। यदि किसीके घर में अग्नि लग जाती है तो वह अपने धन आदिको लेकर वहाँसे निकलनेका विचार करता है। परंतु प्रथम तो वहाँसे उसका निकलना कठिन हो जाता है । यद्यपि देवके अत्यंत अनुकूल होनेपर निकलना कुछ कठिन और आश्चर्य करनेवाला नहीं है तथापि यदि चारों ओर दुर्गम अग्नि लग रही हो तथा निकलने का कोई मार्ग न हो, निकलनेवाला अंधा हो और ज्वरसे अत्यंत पीड़ित हो तो वह अपना धन किस प्रकार उठा सकता है और किस प्रकार वहाँसे निकल सकता है । अर्थात् ऐसा पुरुष वहाँसे न तो निकल सकता है और न अपने धनको रक्षा कर सकता है उसी प्रकार गृहस्थ भी आतं, रौद्र, चिता आदिसे अत्यंत दुखी रहता है इसलिये वह अपना हित कभी नहीं कर सकता । न शुद्ध ध्यान या शुद्ध आत्माकी प्राप्ति कर सकता है । जो लोग अपने मनमें जबर्दस्ती मान लेते हैं वे केवल कहनेके लिये ही मान लेते हैं उनके शुद्ध ध्यान वा शुद्ध आमाकी सिद्धि कभी नहीं होती। ऐसे गृहस्थोंके लिये आगे और भी लिखा है- विपन्महापंक निमग्न बुद्धयः, प्ररूढरा गज्वरयंत्रपीडिताः । परिप्रहव्यालविषाग्निमूर्हिताः, विवेकवीथ्यां गृहिणः स्खलत्यमी ॥ ये गृहस्थ अर्थ - इन गृहस्थोंकी बुद्धि अनेक प्रकारको विपत्तिरूपी महा कीचड़में डूबी रहती है। राग-द्वेषरूपी ज्वरके यन्त्रसे सदा पोड़ित रहते हैं और परिग्रहरूपी सर्पोंके विषरूपी अग्निसे सवा मूच्छित रहते हैं इसीलिये वे गृहस्थ विवेकरूपी गलीमें चलते हुए सदा ठोकर खाकर गिरते रहते हैं। ठीक-ठीक तरहसे चल नहीं सकते । ऐसे गृहस्थोंके लिये और भी लिखा है हिताहितं त्रिमूढात्मा स्वं शश्वद्वेष्टयेत्तराम् । अनेकारम्भजैः पापैः कोशकारकृमी यथा ॥६॥ अर्थ - जिस प्रकार रेशमका कोड़ा अपने आप जाल बनाकर उसमें घिर कर मर जाता है उसी प्रकार अपने हित और अहितको नहीं जाननेवाले गृहस्थ अनेक आरम्भोंसे उत्पन्न हुए पापोंसे अपने आप ही सदा घिर जाते हैं अर्थात् गृहस्यों का आत्मा पापोंसे सवा लिप्त रहता है । भावार्थ - जिस प्रकार रेशमका कोड़ा अपने [
SR No.090116
Book TitleCharcha Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampalal Pandit
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages597
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy