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वर्षासागर [५४२ ।
F आप जाल बांधता है और उसमें फंसकर मर जाता है तथा जिस प्रकार मकड़ी जाल फैलाकर उसमें अपने
आप मर जाती है । उसी प्रकार यह गृहस्थोंका आत्मा अनेक प्रकारके पापरूप आरम्भोंको करता हुआ कर्मबंध करता रहता है । इसलिये उसके शुद्ध ध्यानको सिद्धि कभी नहीं हो सकती।
यैर्जन्मशतेनापि रागाद्यरिपताकिनी। विना संयमशस्त्रेण न सद्भिरपि शक्यते ।
गृहस्थ लोग चाहे जितने बुद्धिमान हों तथापि उनसे बिना संयमरूपी शस्त्रके सैकड़ों जन्मोंमें भी रागद्वेषरूपी शत्रुओंकी सेना नहीं जीतो जा सकती। भावार्थ-गृहस्थ अवस्थामें राग-द्वेषाविक जीते नहीं जा सकते। तथा बिना रागद्वेषोंको जीते आत्माका हित करनेवाला खोपयोगरूप ध्यानको सिद्धि न प्रचंडपवनैः प्रायश्चलन्तेऽचलभूभृतः । तत्रांगलादिभिः स्वान्तं निसर्गतरलं न किम् ॥
____ अर्थ-जब कि प्रचंर पवनके द्वारा अचल पर्वत भी बलायमान हो जाते हैं तो फिर स्वभावसे ही चंचल मन स्त्रियोंके द्वारा क्यों नहीं चलायमान हो सकता अर्थात् गृहस्थोंका मन स्वभावसे ही चंचल होता है फिर उसको और चलायमान करनेके लिये स्त्रियां कारण हो जाती है इसलिये गहस्योंका मन निश्चल होना अत्यन्त कठिन है तथा जबतक मन निश्चल वा एकान नहीं होता तबतक ध्यानको सिद्धि नहीं हो सकती।
खपुष्पमथवा श्रृंगं खरस्यापि प्रतीयते । न पुनः देशकालेऽपि ध्यानसिद्धि हाश्रमे ॥ ६ ॥ स अर्थ-यद्यपि आकाशपुष्प होता नहीं, गधेके सींग होते नहीं तथापि यदि इन दोनोंकी कल्पना की माय
तो हो सकती है परन्तु गृहस्थके किसी भी वेशामें तथा किसी भी कालमें ध्यानकी सिद्धि नहीं हो सकती।। यदि कोई पुरुष जबर्वस्तो गृहस्थावस्थामें ध्यानको सिद्धि मानता है तो उसके लिए श्रीशुभचन्द्राचार्यने ज्ञानार्णवमें ऊपर लिखा इलोक लिखा है । इसके सिवाय इसी अभिप्रायको लिये हुए श्रीगुणभद्राचार्यने आत्मानशासनमें लिखा है । यथा---
सर्व धर्ममयं क्वचित्क्वचिदपि प्रायेण पापात्मक, क्वाप्येतवयवत्करोति चरितं प्रज्ञाधनानामपि । तस्मादेष तदन्धरज्जवलनं स्नान गजस्याथवा, मत्तोन्मत्तविचेष्टितं न हितो गेहाश्रमः सर्वथा ॥ ४१ ॥