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सागर
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KAWA
किसी एक समय बलभद्र दीक्षा लेनेके बाद तुंगीगिरि पर्वत पर घोर तपश्चरण कर रहे थे। वहाँ पर जरासन्धुके वंशके शत्रु इनको देखकर घोर उपसर्ग करने लगे। उस समय बलवेदके सारथी सिद्धार्थका जीव स्वर्गमें या उसने अपने अवधिज्ञानसे स्वामीका घोर उपसर्ग जाना। वह शीघ्र हो वहाँपर आया और मायामयी अनेक सिंह बनाकर उन मुनिके चारों ओर कर दिये। सिंहोंको देखकर वे सब शत्रु भाग गए। तबसे ये ब्राह्मण लोग उन मुनिको मनुष्य जानकर और उनके चारों ओर सिंह जानकर नृसिंह अवतार मानकर पूजा करने लगे। उन्होंने नृसिंह मूर्तिकार की और पूजने लगे। यह कथा दोनों हरिवंशपुराणोंमें लिखी है । यथा
'गीभृंगं समाश्रित्य तपस्तेपेऽपि दुष्करम् । भवभ्रमणतः शांतो वलदेवो दिगम्बरः ||५.६ || एकद्वित्रिचतुः पंचषण्मासो पोषणत्रती । शांतं चक्रे कषायाणां पोषयन्"" *॥५७॥ एकदा विहरन् स्वामी ध्यानधारणहेतवे । वने वैरिजनैदृष्टः शुद्धाहारदिदृक्षया ॥५८॥ पूर्व वैरं स्मरेतोमी श्रुखा ख्यातिं तपस्विनः । संभूय ते समाजग्मुः भूभृतो भूरि सनटाः ॥५६॥ समंततो भ्रमित्वा ते तत्स्थं प्रहरणोद्यताः । आत्मानमिव कर्माणि वेष्टयित्वा तपस्विनम् ॥ ६०॥ कायोत्सर्गस्थितं साधु' निर्भयं स्तंभवत् स्थिरम् । सिंहरूपेण सिद्धार्थं तं ते हंतु ं प्रचक्रमे ॥ ६१ पादपीठान् मुनेस्तावत् सिंहरूपाननेकशः । भयभीताः पलायागुर्हष्ट्वा दशदिशं पृथक् ।। ६२ ।। स्वस्वस्थानैर्गत भूपैः भयलज्जाकुलैस्ततः । नरसिंह इति ख्यातिं चक्रे तस्य सभा स्थितः ॥६३॥ केचित् प्रहरणान्मुक्ता मुनेः शरणमागताः । प्रणामं चक्रिरे केचित् दैवतस्य धियाभयात् ॥ ६४ सिंह्नादेन संत्रस्ते नारसिंहेन विश्रुतः । मूर्तिः कृता धृता मूढैः पूजिता श्रेयसे स्थिता ॥ ६५ ॥ नारसिंहसुरेशस्य प्रथिता भुवि वै तदा । तदा प्रभृति मिथ्यात्वमेकमेतद जायत ॥ ६६ ॥ इस प्रकार संसार में नृसिंह अवतारकी कल्पना हुई है ।
किसी एक दिन मथुरामे देवकीने बलभद्रके मुखले श्रीकृष्णके अप्रमाण पराक्रमकी महिमा सुनी तब उसे कृष्णको बेलने की इच्छा हुई। उसने सोचा कि बलभद्र के किसी प्रपंचसे ही कुष्णसे मिल सकते हैं। यही
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