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________________ आदि तप धारण करने वाले और कंवमल भक्षण करनेवाले तपस्वी मरनेके बाद अपने अज्ञान सपके फलसे। भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्क और कल्पवासो देवों तक सोलहवें स्वर्ग तक उत्पन्न हो सकते हैं आगे कल्पातीत म सागर । बेबोंमें उत्पन्न नहीं होते सो हो मूलाचारमें लिखा है। - ३७r ] संखादीदाऊणं मणुयतिरिक्खाण मिच्छभावेण । उववादोजोदिसिए उपकस्सं तावसाणं तु॥ तमा ब्यापप्रपती परिकामा लोगो शुभाशेते मरकर भवनवासियोंसे लेकर बारहवें सहस्रार स्वर्ग तक उत्पन्न हो सकते हैं। आगे नहीं जा सकते । सो हो लिखा है-- परिवाजगण णियमा उक्कस्सं होदि वंभलोगम्हि । उक्कस्स सहस्सार ति होदि या आजीवगाण तहा ।। भाषामें भी लिखा है। परिवाजक नामा परमती । सहस्त्रार ऊपर नहि गती ।। १९८-चर्चा एकसौ अठानवैवीं प्रश्न-सुना जाता है कि एफेंद्रियसे लेकर पर्चेद्रिय तकके जीव सब तीनों लोकोंमे सब जगह भरे । हुए हैं सो क्या यह बात ठीक है ? समाषान-पह बात ठोक नहीं है इसमें इतना विशेष है कि पृथ्वोकायिक, अपकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक तथा नित्यनिगोव, इतरनिगोदके समस्त एफेंत्रिय जीव ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक, अषोलोक समस्त तीनों लोकोंमें भरे हुए है, तथा पंचेन्निय देव, नारकी, मनुष्य, तिथंच आदि सैनो जीष तीनों लोकोंमें रहनेवालो सनाखोमें भरे हुए हैं और दो इन्द्रिय, ते इन्द्रिय, चौ इन्द्रिय, असैनी पशु और मनुष्य गतिके पंचेंद्रिय जीव मध्यलोकमें हो उत्पन्न होते हैं। ये जीव दूसरी जगह उत्पन्न नहीं होते। नरक, स्वर्ग तथा सिखस्थानमें ये जीव उत्पन्न नहीं होते, मध्यलोकमें हो उत्पन्न होते हैं । सो ही मूलाचारमें लिखा है एइंदियाय पंचेंदियाय उद्धमह तिरयलोएसु । सयल विगलिंदिया पुण जीवा तिरिय हि लोयं हि ।। ६०॥
SR No.090116
Book TitleCharcha Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampalal Pandit
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages597
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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