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ऊंचाई अधिक विखलाई है। कुछ वे किरणे सिद्धों तक थोड़े ही पहुंचती हैं । अभिप्राय केवल इतना ही है कि ।
राजा चामुण्डरायने बहुत ऊंचा स्तम्भ बनवाया है जिस पर यक्षको मूर्ति स्थापित को है, ऐसा गोम्मटसारमें वर्गासागर लिखा है। यथा[३१ ]
गोम्मटसंगहसुगो गोम्मटसिहरुबरि गोम्मटजिणोय । गोम्मटरायविणिम्मियदक्खिणकुक्कडजिणो जयऊ ॥५२॥ जेणुब्भियर्थभुरिमानावखसिमीरणनिलजलधोया ।
सिद्धाण सुद्धपाया सो राओ गोम्मटो जयऊ ॥ ५३ ॥ इस प्रकार गोम्मटसारमें भी जिनालयमें स्थापन किये हुए यक्षदेवका वर्णन है । और देखो
देवेन्द्रनागेन्द्रनरेन्द्रवंद्यान् शुभत्पदान् शोभितसारवर्णान् ।
दुग्धाब्धिसंस्पर्द्धिगुणैर्जलोधैर्जिनेन्द्रसिद्धांतयतीन यजेऽहम् ।। इत्यादि पूजा-पाठ नित्य पढ़ा जाता है । यह पाठ नरेन्द्रसेन भट्टारककृत प्रतिष्ठापाठका है उसी पाठमें यक्ष, पक्षी, इन्द्रादिक, देव, नवप्रह, दिक्पाल, क्षेत्रपाल आविको पूजा करना लिखा है ।
श्रीसमन्तभद्रस्वामीने अपने रत्नकरण्डश्रावकाचारमें लिखा है कि सम्यादृष्टी पुरुषोंको भय, आशा, ।। स्नेह वा लोभसे कुगरु, कुवेव और कुशास्त्रोंको नमस्कार और विनय कभी नहीं करना चाहिये । यथाभयाशास्नेहलोभाच्च कुदेवागमलिंगिनाम् । प्रणामं विनयं चैव न कुयुः शुद्धदृष्टयः ।।
यहाँपर कुवेवोंका निषेध किया है सम्पवृष्टी देवोंका निषेध नहीं किया है । इस प्रकार अनेक शास्त्रोंमें लिखा है।
कदाचित् यहाँपर यह कहो कि शास्त्रोंमें लिखा है तो हम क्या करें ? हमको तो किसी प्रकार करना योग्य नहीं है । क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव किसी प्रकार भी इन देवोंको पूजा, वन्दना आदि नहीं करते क्योंकि समस्त अनग्रन्थोंमें फुदेवोंके माननेका त्याग लिखा है। कुदेवोंके माननेका त्याग किसी एक शास्त्रमें नहीं किन्तु