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________________ सागर 1 समस्त शास्त्रोंमें लिखा है। इसलिए सम्यग्दृष्टि पुरुषोंको इस प्रकारका ( इन देवोंके पूजनेका ) श्रवान, मान, | आचरण करना ठीक नहीं है। परन्त इसका उत्सर वा समाधान यह है कि आपका कहना तो सत्य है सर वा समाधान यह है कि आपका कहना तो सत्य है और । शास्त्रोंमें भापके कहे अनुसार ही लिखा है आपका यह कहना अन्यथा अथवा मिथ्या नहीं है किन्तु उन शास्त्रोंमें कुवेवोंका त्याग लिखा है। जो ब्रह्मा, विष्णु, महेश, विनायक, क्षेत्रपाल, चंडी, भैरव, मारुति आदि कुवेव। I अन्य मतियों के स्थापन किये हुये हैं उन्होंकी पूजा सेवाके स्याग करनेके लिये लिखा है। जैनशास्त्रोंमें कहे हुये । सम्यग्वृष्टी शासन देवताओंका निषेध नहीं है। यदि जैनशास्त्रों में कहे हुये शासन देवताओंका निषेध माना #जायगा तो अनेक शास्त्रोंमें इनका वर्णन क्यों लिखा जाता ? क्योंकि जैनशास्त्रोंमें तो पूर्वापरविरुद्धरहित यवि ऐसा न मानोगे तो गोम्मटसारके पहले अधिकारमें लिखा है कि "महाभारत का रामायण आदि । शास्त्रोंको नहीं सुनना चाहिये । सो क्या जैनशास्त्रों में कहे हुये भारत अर्थात् कौरवों पांडवोंका चरित्र वा याक्ववंशियोंका कयन जो हरिवंशपुराण वा परिवपुराणाविकोंमें लिखा है तथा रामायण अर्थात् रामचन्द्र रावणको कथा जो पद्मपुराणमें लिखी है वह भी क्या नहीं सुननी चाहिये । परन्तु हम आप सब हो इन ग्रन्थोंको पढ़ते-पढ़ाते वा सुनते-सुनाते हैं। इससे सिद्ध होता है कि अन्य मतके रामायण, भारत आदि ग्रन्थ नहीं सुनने चाहिये । जैनशास्त्रों में कहे हुये रामायण, भारत आदिके सुननेका निषेध नहीं है । यदि जैनशास्त्रोंमें कहे हुये भारत, रामायण आदिके सुननेका निषेध मानोगे तो हरिवंशपुराण, पांडवपुराण, पपपुराण आदि ग्रन्धोंका भी लोप करमा मानना पड़ेगा। इसलिये अपना और परका विचार कर कहना चाहिये। जैनशास्त्रों में जो शासन देवताओंका पूजन लिखा है सो ये सब देवता सम्यग्दृष्टो जिनभक्त हैं और जनशासनके रक्षक हैं इसलिये ये सामियों के समान हैं। यदि सम्यग्दष्टी पुरुष इनकी पूजा सत्कार करे तो । । क्या दोष है। जो साधर्मी पुरुष अपनेसे गण, तप वा आयु आदिमें बड़े हों उनको विनय, भक्ति, यपाय । सन्मान, विनय आदि अन्य साधर्मों परुष करते हो यह रोति सदासे चली आ रही है। शास्त्रोंमें भी साधर्मी की सेवा, आदर, सत्कार आदि करना लिखा ही है। तथा वर्तमान समयमें भी श्रावक परस्पर वात्सल्यभाव धारण कर एक दूसरेको दान, मान और सन्मान कर संतुष्ट करते ही हैं तो फिर देवगतिके सामियोंको मानने
SR No.090116
Book TitleCharcha Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampalal Pandit
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages597
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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