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पर्चासागर [२२६ ]
परमेष्ठी हैं। इसलिये इन पांचों परमेष्ठियोंके प्रथम अक्षर अ सि आ उ सा होते हैं। व्याकरणके नियमानुसार
जो सवयों के मिलानेसे 'ओम बन जाता है। उसका प्रकार यह है। अरहंत परमेष्ठीका प्रथम अक्षर अलेना चाहिये। सिख परमेष्ठी शरीररहित वा अशरीर है इसलिये उनका भी प्रथम अक्षर लेना चाहिये। आचार्य परमेष्ठीका प्रथम अक्षर आ लेना चाहिये । उपाध्यायका प्रथम अक्षर उ लेना चाहिये तथा साधु मुनिको कहते हैं इसलिये साधु वा मुनिका अक्षर म लेना चाहिये। इस प्रकार पंचपरमेष्ठीके प्रथम अक्षर अ अ आ उ. ग्रहण करने चाहिये । इन्हींको मिलानेसे 'ओं' बन जाता है सो हो स्वामिकातिकेयानप्रेक्षाको टीकामें लिखा है
अरहंता असरीरा तह आइरिया तह उवज्झया मुणिणो ।
पढमक्खरणिप्पणो ओंकारो पंचपरमेट्ठी ॥ अर्थात् अरहन्त अशरीर ( सिद्ध ) आचार्य, उपाध्याय और मुनि इनके प्रथमाक्षरोंसे ओंकार बनता है और इसीलिये वह पंचपरमेष्ठीका वाचक है। मागे व्याकरणके अनुसार इसकी सिद्धि लिखते हैं
___"समानः सवर्णे दीर्घो भवति परश्च लोपम्" अर्थात् सवर्णके परे रहते सवर्णको दीर्घ हो जाता है और परका लोप हो जाता है । इस सूत्रसे 'अ' इन दोनों अक्षरों मेंसे पहला अकार दीर्घ' आ हो जाता है और दूसरे अ का लोप हो जाता है। फिर आ और
आचार्यका आ इन दोनों अक्षरों में पहला मा बोध होता है और परका लोप हो जाता है। यहाँपर पहला I आकार पहलेसे हो दीर्घ हैं इसलिये दोगको फिर दोघं नहीं होता । सो ही लिखा है
_ "मृतकस्य मृतिर्नास्ति तथा दीर्घस्य दीर्घता नास्ति"
और भी लिखा है। अदीर्घा दीर्घतां याति नास्ति दीर्घस्य दीर्घता । पूर्व दीर्घ स्वरं दृष्ट्वा परलोपो विधीयते॥ 1 १. 'एकमात्रो भवेद् ह्रस्वो विमानो दीर्घ उच्यते ।' अर्थात् एक मात्रावालेको लस्व ओ मात्रावालेको दीर्घ कहते हैं।
aamananesयामा