SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 247
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मयी है उकाराक्षर महेशमयो है तथा मकार ब्रह्म संज्ञक अर्थात् वेवमयी है। इन चारों अक्षरोंका व्याकरणके नियमानुसार ओं बन जाता है और वह इस प्रकार बनता है। "समानः सवर्णे दोघः परश्च लोपम्" अर्थात् । र्षािसागर । सवर्णी अक्षर परे रहते समान अक्षरको दोर्य हो जाता है और परफा लोप हो जाता है। इस सूत्रके अनुसार २२५ ] आ के पी रहते अको बीई हो जाता है और साले आ का लोप हो जाता है । तदनन्तर उ है। उवणे ओ, इस सूत्रसे अवर्णको ओ हो जाता और पर उ का लोप हो जाता है। इस प्रकार अ आ उ इन तीनों अक्षरोंका ओ बन जाता है । इन अक्षरों के आगे चौथा अक्षर म् है ही। उसके मिलानेसे 'ओम्' बन जाता है । यह मकार ब्रह्म संज्ञक है और 'मोनुस्वारः' इस सूत्रसे मकारको अनुस्वार हो जाता है तथा वह ओ के ऊपर । लग जाता है । इसके लिये 'सूघोसूत्रन्यायेन अनुस्वारस्य सह गमनं भवति' इस पंक्तिसे अनुस्वार ऊपर लग । जाता है और ओं शब्द बन जाता है । कदाचित् यहाँपर कोई यह पूछे कि यहाँपर अकारके आगे आकार है सो आकारका ग्रहण केस संभव हो सकता है। उसके लिये कहते हैं कि अवर्णके कहनेसे अकार आकार दोनोंका ग्रहण हो जाता है। इन दोनों में कोई भेद नहीं है । इसीलिये अकार आकार दोनोंका हो ग्रहण किया है। सो हो 'विश्वकासरी वर्णकोष' में लिखा है। अकाराकारको भेदो नास्तीत्यत्र विदुरिको। इसोको मनुमतिस्वरूपाचार्यने सारस्वतमें लिखा है 'वर्णग्रहणे सवर्णप्रहणं कारग्रहणे केवलग्रहणम्' । अर्थात् वर्णके प्रहणसे सवर्णका ग्रहण होता है और कारके ग्रहणसे केवल उसी अक्षरका ग्रहण होता है । यहाँ पर कारका ग्रहण नहीं है वर्णका ग्रहण है । इसलिए अकेला अ न लेकर अ आ दोनोंका ग्रहण करना चाहिये। इस प्रकार अन्य मतवाले भी ओंकारमें अपने इष्टदेवको कल्पना करते हैं और उसको पूजते हैं । एकाक्षरी कोषमें लिखा हैअकारो विष्णुनामास्यादाकारः परमेष्ठिकः । उकारः शंकरः प्रोक्तो मकारो ब्रह्मसंज्ञकः ॥१॥ [ २२० ओंकारस्तु त्रिभिर्देवैर्युक्तो ब्रह्मपदः स्मृतः । स एव वेदसंज्ञः स्यात्कथितोयं मनीषिभिः॥२॥ जैनधर्मके अनुसार ओं में पांचों परमेष्ठी गभित हैं। अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधू ये पांच । SEASESपन्यमाना चाranadine
SR No.090116
Book TitleCharcha Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampalal Pandit
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages597
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy