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________________ खिायर १६ ] वैवके द्वारा उसी मार्गसे ले जाया जाता है अथवा वह स्वयं उस मार्गसे चला जाता है। ऐसा माठवें अध्यायमें लिखा । है। परन्तु आयुर्वेदोका यह कहना भो सत्य नहीं है। यदि यह बात सत्य मान ली आय तो जब वह मनुष्य स्वयं रोगी होता है अथवा उसके परिवार वा फुटुम्बका कोई मनुष्य रोगी होता है तो उसको औषधि क्यों दी जाती है है। यदि कोई शस्त्रादिकसे मारना चाहता है तो उसके बचानेका उपाय क्यों किया जाता है । उसका रोग दूर करने अथवा उसको बचानेके लिये देव, देवियोंका आराधन क्यों किया जाता है। पान, पुण्य, जप क्यों किया। जाता है, परमेश्वरका भजन वा भक्ति क्यों की जाती है। यदि जीव मारनेसे मरता हो नहीं, आयु पूर्ण होनेपर। ही मरता है तो फिर संसारमें जो-जो उपाय किये जाते हैं वे सब व्यर्थ मानने पड़ेंगे। क्योंकि यदि आयु होगी तो यह बिना किसी उपायके अपने आप बच जायगा । आयु पूर्ण हुए बिना कोई भी रोगी नहीं मर सकता इसलिये उसको चिकित्सा करना, इलाज करना व्यर्थ हो जायगा परन्तु संसारमें ऐसा होता नहीं है और न यह किसीका सिद्धांत है इसलिये आयुर्वेदोका ऊपर लिखा सिद्धांत सर्वथा मिथ्या है। यदि जन्म, मरण कोई चीज नहीं है तो अपने मरने के समय तथा अपने कुटुम्बके किसोके मरने समय । शोक क्यों करते हो ? रोते क्यों हो, किसीका जन्म होते समय हर्ष क्यों मनाते हो । यदि जन्म, मरण कुछ नहीं है तो जन्म, मरणके समय हर्ष, विषाद भी नहीं करना चाहिये परन्तु समस्त संसार करता है और शास्त्रों# में भी लिखा है इसलिये जन्म, मरणको न मानना लोकविरुद्ध और शास्त्रविरुद्ध है। दया धर्मका लोप करने वाला है और हिंसादिक महापापोंको उत्पन्न करनेवाला है इसलिये धर्मात्माओंको कभी मान्य नहीं हो सकता।। कदाचित् यहाँपर कोई यह कहे कि आयु पूर्ण हुए बिना जीव मरता है यह बात अभी तक निःसंदेह नहीं हुई है । तो इसका उत्तर यह है कि मरणके दो भेद हैं। उदय और उदीरणा । जो शस्त्र, अग्नि, जल, श्वासोच्छ्वासका निरोध मर्मस्थानको चोट, क्षुधा, तुषा, दुस्तर रोग और पतन आविसे जीवका मरण होता है उसको कवलीघात मरण अथवा उदीरणामरण कहते हैं। इसका विशेष स्वरूप अष्टपाहड़ आदि शास्त्रोंमें लिया है। इसी प्रकार अपनी आयु पूर्ण होनेपर जो मरण होता है उसको उदय मरण कहते हैं। जिस प्रकार कच्चे आमको पालमें वेकर पका लेते हैं और वह पालमें देनेसे मर्यादाके पहले ही पक जाता है उसी प्रकार विष, शस्त्र आदिके कारण मिलनेसे जो आयुके समस्त निषेक बोबमें ही खिर जाते हैं उसको अकालमरण । [३६
SR No.090116
Book TitleCharcha Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampalal Pandit
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages597
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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