SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७२] दपमाभिजोणं कियि संमोहमासुरत्तं च। ता देव दुग्गईओ भरणम्मि विराहिए होति ॥ २८ ॥ सागर टोका-कंदर्प आभियोग्यं किल्विषं स्वमोहत्वं आसुरत्वं च। ताः देवदुर्गतयः मरणे विराधिते भवंति ।। इस प्रकार लिखा है सो यह सब मिथ्यात्वका फल है। इसका भी विशेष वर्णन इस प्रकार हैकंदर्प, आभियोग्य, किल्विष, असुर ये देवोंमें उत्पन्न होते हैं। जो जीव अन्त समयमें समाधिमरणके बिना केवल दुई सि सहित मरण करते हैं वे ही ऊपर लिखे नीच देवोंमें उत्पन्न होते हैं । इसका भी अलग अलग खुलासा इस प्रकार है-जो योगी होकर भी असत्य वचन बोलते हैं, हंसो, ठछा करते हैं, राग बढ़ानेघाले । वचन कहते हैं, कामदेवके वशीभूत होकर कामलेवनमें लीन रहते हैं और कामदेवको उत्तेजित करनेवाली क्रियाएँ करते रहते हैं ऐसे खोटे योगी मरकर कंदर्प जातिके देव होते हैं । सो वहां भी वे काम-क्रियाको बढ़ानेवाले कार्य हो किया करते हैं तथा जो यन्त्र तन्त्र मन्त्र आदि कार्योको अधिकताके साथ करते हैं जो ज्योतिष वैद्यक आदि अशुभ कार्योको करते हैं जो संघ वा चैत्यालयको हंसी करते हैं, अनेक प्रकारको चेष्टाएँ करते हैं, जो धर्मात्माओंकी अविनय करते हैं, जो मायाचारी हैं और किल्विष अर्थात् पापकर्ममें सवा लीन रहते हैं ऐसे १ पुरुष मरकर देवगतिमें नीच योनिमें अर्थात् किल्विष जातिके देवोंमें उत्पन्न होते हैं । जो जीव कुमार्ग वा शास्त्रविरुद्ध मार्गका उपदेश देते रहते हैं, जो जिनमार्गका नाश करनेमें लगे रहते हैं, सम्यग्दर्शनसे सवा विपरीत चलते हैं, जो स्वयं सम्यग्दर्शन रहित होते हैं, महा मिथ्यात्वी रहते हैं. जो मिथ्यात्व, मायाचारी और मोहसे सदा मोहित रहते हैं तथा मोहसे सवा पोड़ित रहते हैं ऐसे जीव मरकर भंडाभरण जातिमें उत्पन्न होते हैं। जो यति होकर भी क्षत्र, क्रोधी, दुष्ट, हिंसक, मायाचारी, दुर्जन हैं तथा जो तप और चारित्रमें परम्परासे बैर । बाँधते चले आ रहे हैं जिनके परिणाम सदा संश्लेशरूप रहते हैं और जो सदा निदान करते रहते हैं ऐसे जीव मरकर रौद्र परिणामोंको धारण करनेवाले असुरकुमार जा तके वेवोंमें असुर होते हैं सो ही मूलाचार प्रदीपक समाधिमरणके प्रकरणमें मरणके सत्रह भेदों में कहा है। ! कादर्पमाभियोग्यं च कैल्विष्य किल्विषापरम् । स्वमोहत्वं तथैवासुरत्वमत्वैः कुलक्षणः ॥६॥ ७२
SR No.090116
Book TitleCharcha Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampalal Pandit
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages597
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy