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________________ विक हो जाय तो वह जीव वहाँसे निकलकर वो इंद्रिय आवि स पर्यायमें आकर उत्पन्न होता है । उस निगोद राशिसे जितने जीव निकलफर उस पर्याय धारण कर संसारको व्यवहार राशिमें आते हैं उतने ही जीव व्यवचर्चासागर हार राशिसे निकलकर समस्त कर्माका नाशकर मोझ चले जाते हैं। इस प्रकार व्यवहार राशि उतनीकी उस [३६] ही बनी रहती है । इस प्रकार जैनशास्त्रोंमें भगवान् जिनेन्द्रदेव ने कहा है सो सर्वथा निसंदेह है। इसको उदाहरण वेकर समझाते हैं। जैसे पचवह आदि छहों ग्रहों से गंगा सिंघु आदि चौवह नदियां निकलती हैं तथा अनादि- ॥ कालसे उन ग्रहों से पानी निकलता रहता है और समुद्र में पड़ता रहता है तो भी ब्रहोंका पानी घटता नहीं। बश १. इसका अभिप्राय यह है कि यद्यपि नित्यनिगोद राशिमेंसे जो जीव निकलते हैं वे कम अवश्य हो जाते हैं परन्तु वे अक्षय अनंतानंत हैं कम होनेपर भी उनको अक्षय अनंतानंत संख्या कमी कम नहीं होती। जैसे आकाश अनंत है और वह चारों ओर मत है यदि हम किसी एक और किसी तेज सवारीसे चलें तो उस ओरका जो आकाश है वह जितना हम चलते हैं उतना कम तो अवश्य होता जाता है परन्तु वह बाकी भी. हमेशा अनंत ही रहता है। इस प्रकार यदि हम अनंत कालतक चलते रहें तो उतना अनंत आकाश कम हो जायगा परन्तु फिर भी बाकी आकाश अनंत ही रहेगा। अनंतमेंसे अनंत निकाल लेनेपर भी अनंत ही बाली रहते हैं जैसे करोड संख्यात हैं और दस भी संख्यात हैं करोडमसे दस निकल जाने पर अथवा सौ वा हजार निकल जाने पर भी हि संख्यात हो बाकी रहते हैं इसी प्रकार अनन्तमेंसे अनंत निकल जानेपर भी अन्त ही बाकी रहते हैं। जब आकाश अनन्त है और उसमेंसे अनन्तकाल तक चलते चलते अनन्त आकाश घट जाता है, परन्तु फिर भी बाकी आकाश अनन्त हो रहता है। यदि बाको आकाश अनन्त न माना जाय तो फिर आकाशका अन्त आ जाना चाहिये, सो है नहीं क्योंकि आकाश सर्वत्र व्यापक है। यदि आकाशका अन्त मान लिया जायगा तो फिर उसके व्यापकपनेका अभाव मानना पड़ेगा परन्तु आकाशको व्यापक सबने माना है इसलिए जिस प्रकार आकाश अनन्त होकर भी तथा उसमें से अनन्त आकाश घट जानेपर भी सर्वत्र व्यापक होनेसे बाकी आकाश अनन्त ही रहता है उसी प्रकार अक्षयानन्तानन्त निगोदराशिमसे निकलनेवालों की संख्या घट जानेपर भो वह निनोदराशि सदा । अक्षय अनन्तानन्त हो बनी रहती है। इसमें कोई किसी प्रकारका संदेह नहीं है। इसी प्रकार सिद्धराशि अनन्तानन्त है उसमें अनादिकालसे जोव बढ़ते आ रहे हैं तथा वढ़ते जागे फिर भी वह सदा अनंतानंत ही रहेगी । जैसे आकाश अनन्त है यदि हम पूर्वको चलें तो पूर्वकी ओरका आकाश तो घटता जाता है और पश्चिमको ओरका । आकाश बढ़ता जाता है। यदि हम इस प्रकार अनन्त कालतक चलते रहें और इस प्रकार पश्चिमको ओरका आकाश अनन्तरूपसे ही बढ़ता रहे तो मो अनन्त हो रहता है। न तो पूर्वका आकाश अनन्तसे घटता है और न पश्चिमका आकाश अनन्तरूपसे बढ़ता है। इसी प्रकार निगोद राशि से जीवोंके निकलते रहने पर भी निगोद राशिका अक्षय अनन्तानन्तपन कभी नहीं घटता तथा सिद्ध राशिमें अनादिकाल से जीव बढ़ते जा रहे हैं और अनंत कालतक बढ़ते जायगे तब भी उनकी संख्या अनंतानंतसे कमी नहीं बढ़ेगी। ।। इस प्रकार न तो संसारको जीवराशि कभी घटती है और न सिद्धराशि कभी बढ़ती है।
SR No.090116
Book TitleCharcha Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampalal Pandit
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages597
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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