SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 190
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्षासागर - १६८ ] चित्ते मुखे शिरसि पाणिपयोजयुग्मे, भक्तिं स्तुतिं विनतिमञ्जलिमञ्जसैव । चेक्रीयते चरिकरीति चरीकरीति, यश्चर्करीति तव देव । स एव धन्यः ।। १० ।। ईर्यापथे प्रचलताऽद्य मया प्रमादादेकेन्द्रिय प्रमुख जीव निकायबाधा । निवर्तिता यदि भवेदयुगांतरेक्षा, मिथ्या तदस्तु दुरितं गुरुभक्तितो मे ।।११।। पडिक्कमामि भंते ! इरियावहियाए विराहणाए, अणागुत्ते, अइग्गमणे, णिग्ग्मणे, ठाणे, गमणे, चक्कमणे, पाणुग्गमणे, वीजुग्गमणे, हरिदुग्गमणे, उच्चारपस्सवण खेलिसिंघाण'वियडिय पइद्वावणियाए जे जीवा एइंदिया, वा वेइंदिया, वा, तेइंदिया वा, चतुरिंदिया 'वा, पंचिदिया वा, गोल्ल्दिा वा, पेल्लिदा वा संघादिदा वा, उद्दाविदा वा, परिदाविदा वा, । किरिच्छदा वा, लोस्सिदा वा, छिंदिदा वा, भिंदिदा वा, ठाणदो वा, ठाणचक्कमणदो वा, तस्स उत्तरगुणं, तस्स पायच्छित्तकरणं, तस्स विसोहीकरणं, जाव अरहंताणं, भयवंताणं, मोक्कारं पज्जुवासं करोमि, तावकालं, पावकम्मं, दुच्चरियं वोस्सरामि ।। १२ । । णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं । यहाँपर णमोकार मन्त्रका अप नौ बार करना | जीतनेवाले श्रीजिनेन्द्रदेव जयवन्त होओ || ९ || हे जिनेन्द्र ! जो पुरुष हृदयमें आपकी भक्ति, मुखसे आपकी स्तुति, शिरसे नमस्कार और हाथसे बार-बार अञ्जलि करता है अर्थात् हाथ जोड़ता है वही पुरुष इस संसार में धन्य है ।। १० ।। हे भगवन् ! मार्ग में चलते हुए मुझसे यदि प्रमादवश बिना देखे किसी एकेंद्रियादिक जीवकी हिंसा हुई हो तो वह आपकी भक्तिसे मिथ्या होवे ॥ ११ ॥ हे भगवन्! मेरे चलने में जो कुछ जीवों को हिंसा हुई हो, उसके लिए में प्रतिक्रमण ( उस किये हुए दोषका निराकरण ) करता हूँ । यथा - मन, वचन, कायको वश में न रखनेसे बहुत चलनेसे, इधर-उधर फिरनेसे, बैठनेसे जाने-आनेसे द्रियादिक प्राणियोंपर बोज और हरितकायपर पैर रखकर चलनेसे, मल, मूत्र, थूक, संग्राण ( नाकका मैल) और मिट्टी गैरह डालने से एकेंद्रिय, दोइंद्रिय, इंद्रिय, चतुरिद्रिय मथवा पंचेंद्रिय प्राणी अपने स्थानपर जानेसे रोके गये हों, दूसरी जगह डाले गये हों, संघर्षित किये गये हों, संघर्षित कराये गये हों, एक दूसरेके ऊपर डाले गये हों, तपाये गये हों, काटे गये हों, मूच्छित किये गये हों, छेदे गये हों, अपने स्थानसे अथवा जाते हुए भिन्न-भिन्न किये गये हों, तो में उसका प्रायश्चित करता [ १६
SR No.090116
Book TitleCharcha Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampalal Pandit
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages597
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy