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चर्चासागर [२०]
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योवन्मे स्थितिभोजनेस्ति दृढ़ता पाण्योश्च संयोजने,
भंजे तावदहं रहाम्यथ विधावेषा प्रतिज्ञा यतेः। कायेप्यस्पृहचेतसोऽन्यविधिषु प्रोल्लासिनः सम्मते
न ह्यतेन दिविस्थितिर्न नरके सम्पद्यते तद्विना ॥ ४३ ॥ इससे सिद्ध होता है कि मुनिराज जो आहार ग्रहण करते हैं वह भी प्रतिज्ञापूर्वक ही ग्रहण करते हैं। जैसे कोई गृहस्थ अपने हायको उँगली में किसी धातुकी अंगूठी पहिन कर यह नियम कर ले कि यह अंगूठो, जबतक इस उंगली में है तबतक मेरे अन्त गलका माल है। बरि उसे भोजन करनेकी आवश्यकता होती है तब उसे वह उस उँगली से निकाल कर दूसरी उँगलोमें पहन लेता है या उतार कर रख देता है और फिर । भोजन कर लेता है। उसी प्रकार मुनियों के भी आहार करते समय दोनों हाथोंके संयोग होनेका नियम समक्ष लेना चाहिये।
२१-चर्चा इकईसवीं प्रश्न-जैनमतमें अप करनेको मालाके मणियोंकी गिनती एक सौ आठ है सो इसमें क्या कारण है ?
समाधान-संसारी जोव हमेशा प्रमाद और कषायके आधीन रहते हैं तथा त्रस स्थावरोंके भेदसे बारह प्रकारके जीवोंकी मन, बच्चन, काय, कृत, कारित, अनुमोदनाके द्वारा एक सौ आठ भेदरूव पांचों पापोंका आस्रव और बंध करते रहते हैं उन सबको निवृत्तिके लिये एक सौ आठ मणियोंको माला बनाई गई है। आस्रव बंधके वे एक सौ आठ भेव इस प्रकार समझना चाहिये । पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, नित्यनिगोद, इतरनिगोद, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असैनी पर्चेन्द्रिय, सैनो पंचेन्द्रिय इस प्रकार बारह भेद होते हैं । इन बारह प्रकारके जोबोंके मनसे, वचनसे तथा कायसे हिंसादिक पाप होते हैं जो छत्तीस प्रकारके हो जाते हैं । तथा ये छत्तोसों प्रकारके पाप स्वयं करने, दूसरोंसे कराने और १. जबतक मुझमें खड़े होनेको शक्ति है तथा दोनों हाथ मिलानेको शक्ति है तबतक हो में भोजन करूँगा अन्यथा सर्वथा त्याग ___ कर दूंगा । इस प्रकार शरीरसे निस्पृह रहनेवाले मुनियों के प्रतिज्ञा होता है।
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