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इसके सिवाय भगवान पार्श्वनाथके जन्म समयमें भी इसी प्रकार कथन है सोही पार्वपुराण में
लिखा है-- -सिगर इत्थं गंधोदकैः कृत्वाभिषेक सुरनायकाः। शांति ते घोषयामासुच्चैर्भवाघशातये ॥१२॥ १११ ] । चक्रुः शिरसि भाले च नेत्रे सर्वांगपुद्गले । स्वर्गस्योपायनं पृतं तदगंधाधु सुरास्त्रियः॥१३॥
गंधांबुस्नपनस्यांते जयनंदादिसत्स्वरैः । व्यातुक्षीममराश्चक्रुः सचूर्णेगंधवारिभिः ॥१४॥
इसलिये ऊपर लिखा हुआ लोगोंका कहना असत्य है ।
तथा गर्भान्वय आदि क्रियाओं में जो बालकको केशवाय (मुण्ड न वा केश उतरवाना) निया है उसमें पहले देव, शास्त्र, गुरुको पूजा होती है, फिर बालकका मस्तक गन्धोदकसे भिगोया जाता है, फिर केश उतारे
जाते हैं, तदनन्तर गन्धोदकसे ही बालकको स्नान कराया जाता है। ऐसा श्रीजिनसेनस्वामीने आदिपुराणके 1 अड़तीस पर्वमें लिखा है-- केशवापस्तु केशानां शुभेह्नि व्यपरोपणम् । क्षौरेण कर्मणा देवगुरुपूजापुरस्लरम् ॥६६॥
गंधोदकार्दितान् कृत्वा केशान् शेषाकृतोचितान् ।
मौड्यमस्य विधेयं स्यात्सचूलं वान्योचितम् ॥ १७॥ स्नपनोदकधीतांगमनुलिप्तं सभूषणम् । प्रणमय्य मुनीन् पश्चायोजनेद्वंधुताशिषा।
इसके सिवाय जब राजा श्रीपाल कोटोभट कोढ़ रोगसे पोड़ित हो गये थे और उनके साथके साससौ ! योद्धा भी कोढ़ रोगसे पीड़ित हो गये थे तब श्रीपालकी रानी भनासुन्दरीने भगवान्का गन्धोदक लेकर उनके समस्त शरीर पर सींचा था और उसके सींचनेसे उन सबका कोढ़ रोग दूर हो गया था। ऐसा कथन श्रीपालचरित्र आदि शास्त्रों में लिखा है, इसलिये गन्धोदकके हाथ धोना किस प्रकार सम्भव हो सकता है। तथा गन्धो दककी महिमा जैनशास्त्रोंमें जगह-जगह लिखी है, इसलिये इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये । तथा बिना समझे शास्त्रविरुद्ध वचन नहीं बोलना चाहिये । जो इस प्रकार कहते हैं वह उनकी कपोलकल्पना है। १. वास्तविक बात यह है कि गन्धोदक वा भगवान् के अभिषेकका जल महा-पवित्र है। वह किसी प्रकार अपवित्र नहीं हो सकता
तथा विनय जौर विनय दोनों भावोंसे होती है।
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