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________________ तामकु तित्थययरीभमधुत्तिमतांम करे । गुरु वयसा राजामणि विदेह हदेह मुणेय ॥४१॥ तित्यह देहणवि इमि सुइ केवलि वत्त । देही देवल देउ जिण ए उजाणि णिभंतु ॥४२॥ चर्चासागर देहा देवल देव जिणु देवल हीणी एदोइ । सामइ पडिहा इदह सिघीभी स्वयमेइ ॥४३॥ [ १४८] मूढा देवलि देवणिविण विसला लिपइ चित्तादेहा देवल देव जिणु सो बुझ्झइ समचित्त॥४४॥ तीरथई देव जिण सव्वुवि कोइ थणेइ । देहा देवलि जो भुणइ सो बहु कोवि हवेइ ॥४५॥ इससे सिद्ध होता है कि अपने दारोररूपी मंदिर में अपना आत्मा हो यथार्थ देख है । तोर्य और मंदिरों। में कोई देव नहीं है। जो मानते हैं सो अज्ञानो है अन्य मतमें भी इस प्रतिमापूजनका निषेष किया है और बसलाया है कि यह तो लौकिक कदि है। गृहस्थों के लिये हैं परमार्थ रूप नहीं है, संघरूप है । सो हो चाणिक्यमें लिखा हैअग्निहोत्रेषु विप्राणां हृदि देवो मनीषिणाम् । प्रतिमास्वल्पबुद्धीनां सर्वत्र विदितात्मनाम् ।। अर्थात्-जाह्मण लोग अग्निहोत्रमें देव मानते हैं, अल्पबुद्धिवाले गृहस्थ प्रतिमा हो देव मानते हैं और आत्माको जाननेवाले सब जगह देव मानते हैं। इसीलिये प्रतिमा मानने में हमारी अरुचि है। जिस प्रकार धातु, पाषाण, मिट्टो, काठ आविका बनाया हुआ हाथी, घोड़ा, मनुष्य को सच्चा समझकर बालक खेला करता। है परंतु जब वह समझ लेता है तब उनको झूठा समझकर उनसे क्रीडा करना छोड़ देता है और अन्य कार्योंमें लग आता है उसी प्रकार अल्प बुद्धिवार्लोको धर्मसेवनके लिये जिनप्रतिमा है। वह परमार्थरूप नहीं है केवल खेद उत्पन्न करनेवालो है । वह प्रतिमा अचेतन है, जड़ है इसलिये उससे इच्छानुसार फल नहीं मिल सकता, इसके सिवाय अचेतन प्रतिमाको पूजन करने आदिमें अनेक प्रकार से पृथ्वीकाय आदि छहों कायके जोधोंको महा हिंसा होतो है तथा हिसासे पापकर्मका बंध होता है और पापकर्मोके बंधसे नरकादिक बुर्गतियोंको प्रारित होती है इसलिये प्रतिमापूजन करना सर्वथा अयोग्य है । धर्म तो एक बयारूप है । बया हो सब धर्मोमें मुख्य हे सो हो लिखा है "हिंसारहिये पम्मे" अर्थात् जिसमें हिंसा नहीं है वही धर्म है फिर लिखा है-"आरंभे थियदया" अर्थात्-मारंभमें दया नहीं पल [..
SR No.090116
Book TitleCharcha Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampalal Pandit
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages597
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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