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________________ कपड़ते हैं । यदि कोई दूसरा आपके यहाँ आकर पूजा, पाठ करता है उससे आप क्रोध करते हो । मन्दिरोंमें। यदि अपने सम्प्रदायको मूर्ति हो तो आप लोगोंके भाव निर्मल रहते हैं यदि प्राचीन सम्प्रदायकी हो तो कलुष चर्चासागर भाव हो जाते हैं इस प्रकार आप समान सम्यग्वृष्टियोंके दो प्रकारके भाव होते हुए भी आप लोग धवानी । [२८६ ] कहलाते हो। यह आपका हो मत है। दूसरी बात यह है कि भगवानको प्रतिमाके चरणों में गंध लगानेसे अथवा ऐसी प्रतिमाके दर्शन करने, । उसको पूजा' वंदना, भक्ति, अभिषेक आदि पुण्य कार्य करनेसे, पुष्प चढ़ानेसे, दीपक जलाकर चढ़ानेसे तथा फल चढ़ानेसे तथा अन्य सचित्त पदार्थोंसे पूजा करनेसे कोई जीव मिथ्यादृष्टी हो जाता है, वह नरक, निगोद आदि । नोच गतियोंमें जाता है और अनन्त संसार परिभ्रमण करता है यह बात किसी कथा वा पुराण आदिमें दिखलाना तो चाहिये ? तथा जिनपूजाके निन्दकोंने निद्यगति पाई है सो जिनागममें जहां-तहाँ कथारूपमें विस्तारके । साथ लिखी ही है तथा आप लोग पान जानते ही हो ! विचार करनेकी बात है कि भगवानको पूजा करने, अभिषेक करने, तीर्थयात्रा, रथयात्रा, नैमित्तिक उत्सव, पूजापाठ आदि कार्यो में आरंभजनित जो कुछ स्थावरादि जीवोंको हिंसा होती है उसका दोष यदि उस पजाके करनेसे नहीं मिटता तथा ऐसे कार्योसे जीवोंके असभ कर्मका बंध होता या अशभ गति होती तो जो ५ मुनिराज अहिंसा, महावतावि पांचों महावतोंको पालन करते हैं पांचसमिति, तीन गुप्ति मावि अट्ठाईस मूलगणोंको पालन करते हैं उत्तरगणोंको पालन करते हैं और सब प्रकारके आरंभके त्यागी होते हैं ऐसे महा संयमी मुनिराज स्वयं अपने वयेनोंसे नवीन मंदिर बनवाने, जिनप्रतिमाओंको प्रतिष्ठा कराने, अभिषेक महाभिषेक करने आदि । सावध योगरूप पुण्यकार्योंके करनेका उपदेश श्रावकोंके लिये क्यों करते ? इस बातका विचार तो बहुत छोटा-1 सा आदमी कर सकता है फिर भला मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञानको धारण करनेवाले मनिराजोंको समझमें यह बात न आई ? जो उन्होंने ऐसा उपदेश दिया ? क्योंकि जितने जिनागम हैं वा जितने पूजा पाठ हैं उन सबमें उन्होंके कहे हुये वचन हैं। उन्होंने इन क्रियाओंके करनेका उपदेश दिया है । जैनशास्त्रों में जितने व्रत बतलाये हैं तथा उनका विधान पूजा, अभिषेक आदि जो कुछ कहा गया है वह सब उन्हीं मुनियोंका ! बताया हुआ है । ऐसे पूजा, अभिषेक आदि कार्य जिन्होंने किये हैं उनको कथा शास्त्रोंमें प्रसिद्ध हो है । तथा । । उसी प्रकार अब भी लोग करते हो हैं।
SR No.090116
Book TitleCharcha Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampalal Pandit
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages597
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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