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मंगल' । अर्थात् चौय
अर्थात् महापुरुषों के द्वारा कहा हुआ एक वचन भी बहुवचन कहलाता है । अर्थात् महापुरुषोंके द्वारा
कहा हुआ साघु शब्द भी आचार्य, उपाध्याय, साधु तीनोंका हो वाचक समझना चाहिये । इस प्रकार ऊपर लिखे । पर्चासागर प्रश्नका समाधान है। FIFA आगे इन मंत्रों का अर्थ विस्तारके साथ लिखते हैं। तारि मंगल' अर्थात मंगल चार है। 'अरहत।
। मंगलं' पहला मंगल अरहत भगवान है । 'सिद्ध मंगल दूसरा मंगल सिद्ध परमेष्ठी है। 'साहू मंगलं' तीसरा । मंगल साधु परमेष्ठी है अथवा आचार्य, उपाध्याय, साधु तीनों परमेष्ठी मंगलमय है। 'केवलिपणत्तो धम्मो
र्थात चौथा मंगल केवली भगवानका कहा था ATEL लायजामा सात मन ही मंगल है। इस प्रकार अरहंत, सिख, साधु और फेवलीप्रणीत धर्म ये चारों मंगलमय हैं। मंग सुखको कहते हैं तथा ल का अर्थ वेना है जो मंग अर्थात् सुखको ल अर्थात् देवे उसको मंगल कहते हैं (मैगं सुखं लाति वदातोति मंगलम्) अथवा मं शब्दका अर्थ पाप है और गल शम्बका अर्थ गलाना वा नाश करना है। जो मं अर्थात् पापको गल अर्थात् गला देवे, नाश कर देवे उसको मंगल कहते है ( में पापं गालयति नाशयतीति मंगलम् ) इस प्रकार निरुक्तिपूर्वक मंगल शब्दके वो अर्थ बनते हैं।
अन्यमती गणेश आदिको मंगलरूप कहते हैं सो ठोक नहीं है ऊपर कहे हुए अरहंत, सिद्ध आदिक हो मंगलरूप समझने चाहिये ।
'बत्तारि लोगुत्तमा' अर्थात् संसारमें चार ही लोग उत्तम हैं। 'भरहंस लोगुत्तमा' प्रथम तो अरहत भगवान उत्तम हैं । 'सिद्ध लोगुत्तमा' दूसरे सिद्ध लोग उत्तम हैं। 'साहू लोगुतमा' आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु रूप साधु परमेष्ठी उत्तम हैं । 'केलिपगत्तो धम्मो लोगुतमा' केवली भगवानका कहा हुमा अहिंसा| मय दयामय धर्म ही उत्तम है। र संसारमें ब्राह्मण लोग अपने को उत्तम बतलाते हैं सो नहीं है। उनके वंशमें पहले जो ऋषि हुये हैं।
[ ५६ जिनको संतान ये ब्राह्मण कहलाते हैं वे हीन थे, शूद्र कुलके थे, पशु आदिसे उत्पन्न हुए थे। ये ब्राह्मण लोग अपनेको उन्हींकी सन्तान बतलाते हैं जैसा कि भारतके शान्तिपर्वमें लिखा है तथा पहले इसी ग्रन्यमें लिख चुके हैं। "
नार-मानायक
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