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________________ सागर १३२] लाया । कम्या, हाथी, सुवर्ण, घोड़, कपिला (गों) बासी, तिल, रथ, भूमि, घर ये वश प्रकारके वान ब्राह्मणों। को देने के लिये बतलाये । इस प्रकार उसने महा हिंसाको प्रवृत्ति करनेवाले कुत्सित वानोका स्थापन किया । सोही लिखा हैकन्याहस्तिसुवर्णवाजिकपिलादासीतिलाः स्यन्दनं, क्षमागेहप्रतिबद्धमंत्रदशधा दानं दरिद्रेशिनम् ॥ तीर्थान्ते जिनशीतलस्य सुतरामाविश्चकारः स्वयं, लुब्धो वस्तुषु भूतिशर्मतनयोऽसौ मुण्डशालायनः॥ ऐसे पुरुषोंको जो बान बतलाया है वह हिंसादिक महापापोंका बढ़ानेवाला है। जैनधर्मको धारण करनेवाले धर्मात्माओंको कभी ऐसा दान नहीं देना चाहिये । परन्तु इन्हीं दानोंका वर्णन जैनशास्त्रोंमें भी है। किन्तु उनके देनेका अभिप्राय जुदा है । जैनधर्ममें । तीन प्रकारके पात्र बतलाये हैं। उत्तम पात्र मुनि हैं, मध्यम पात्र व्रत प्रतिमाको आदि लेकर ग्यारह प्रतिमा तकको धारण करनेवाले हैं। तथा जघन्यपात्र ब्राह्मणादि वर्गों में उत्पन्न हुए सम्यग्दृष्टी मूलगुणाविकोंको ॥ धारण करनेवाले सप्त व्यसनाविक किसने हो पापोंके स्यागो ऐसे वती गृहस्थ वा गृहस्थाचार्य हैं। इनमेंसे जघन्य पात्रोंको योग्यायोग्य विचार कर ऊपर लिखे दस प्रकारके वान देने चाहिये तथा मध्यम और उत्तम पात्रोंको । आहार, औषध, आहार और वसतिका इन चार प्रकारके वानोंमें ययायोग्य रीतिसे कोई-सा भी दान देना। चाहिये । सो ही लिखा हैविचार्य युक्तितो देयं दानं क्षेत्रादिसंभवम् । योग्यायोग्यसुपात्राय जघन्याय महात्मभिः॥ मध्यमोत्तमयोर्लोके पात्रयोने प्रयोजनं । क्षेत्रादिना ततस्ताभ्यां देयं पूर्व चतुर्विधम् ॥२॥ ___ इससे सिद्ध होता है कि जघन्यपात्रको भूमि आदिका दान देना चाहिये। इसके सिवाय भगवान जिनेन्द्रदेवका मन्दिर बनवाना, प्रतिमाजी बनवा कर तथा उनकी प्रतिष्ठा कराकर उस मंविरमें विराजमान करना, उस प्रतिष्ठामें जो श्रावक-श्राविका संघ आया हो उसको भोजनवान । । ना तथा सुवर्ण मान वेकर सबको तृप्त करना, उस मूर्तिको पूजा सदा काल होती रहे इसके लिये भूमि, क्षेत्र । [३३२
SR No.090116
Book TitleCharcha Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampalal Pandit
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages597
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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