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सफल होते हैं। जो लोग अपने मनमें अनेक प्रकारके विकल्प उठाकर भगवान जिनेन्द्रदेवकी आज्ञा शंका,
संशय, मोह और विपरीतता धारण कर भगवानको आज्ञाका निषेध करते हैं और अपने मनको कल्पनाके अनुसागर - सार चलते हैं वे भगवानको आज्ञाके बाधक समझे जाते हैं । जो लोग भगवानको आशाके विरुद्ध केवल अपनी २९.] बुद्धिसे कई प्रकारसे अधिक-अधिक कल्याण करना चाहते हैं, धर्मपालना चाहते हैं तो भी जिनाशाके विरुद्ध होनेसे उनका एक भी कार्य सिद्ध नहीं होता है ।
यहाँपर कदाचित् कोई यह कहे कि तुमने अब तक जो कुछ कहा है सो सब बढ़ा चढ़ाकर कहा है सो । क्या इतना बढ़ा-बढ़ा कर कहनेवाले तुम हो विद्वान हो ? तुम ही पढ़े हो ? क्या तुम्हारे सिवाय बाकीके सब मूर्ख ही हैं जो तुम उनके लिये ऐसा कहते हो ? तो इसका उत्तर यह है कि “भाई ज्ञानी का ज्ञान तो अनन्त । है उसका तो पार नहीं है। हमने तो जो शास्त्रों में देखा है वा सुना है, वही लिखा है। यह ठीक है कि हम प्रशंसाके पात्र नहीं हैं न कुछ पढ़े लिखे विद्वान हैं, श्रेष्ठ हैं तथापि आप लोगोंका पढ़ना गुरुमुखसे नहीं हुआ। है, आप लोगोंको विद्या गुरुमुखसे प्राप्त न होने के कारण गुरुमार कहलाती है । जो लोग पहले थोड़ा बहस गुरुसे पढ़ लेते हैं और फिर अपने ज्ञानके मदमें आकर अपने आप सिद्ध बन जाते हैं, गुरुसे द्रोह करने लग जाते हैं। उनकी विद्या गुरुमार विद्या कहलाती है। जो विद्या गुरुआज्ञासे बाह्य होती है यह चोर, छास्थ और छलबलको विद्या कहलाती है ऐसी विद्या कभी सफल नहीं होती।
यहाँपर प्रकरणवश लौकिक दृष्टांतको लेकर चार पण्डितोंका उदाहरण लिखते हैं। एक नगरमें चार ब्राह्मणके पत्र परस्पर मित्र थे। वे सब मिलकर कछ धन कमाने के लिये विदेश चले। उन्होंने एक बैलपर पस्त वस्त्र आदि सब समान लाद लिया था। चलते-चलते मार्गमें वृक्षोंकी सघन छाया, जलका पक्का कुआँ, पासमें हो वन और उसके थोड़ी दूर गाँव दिखाई दिया। ऐसे स्थानको देखकर चारोंने सलाह की कि यहाँपर वेधपूजन, स्नान, संघ्या, रसोई आदि सब काम कर लेने चाहिये । तब फिर आगे चलना चाहिये । ऐसा सोचकर वे सब वहाँपर उतर पड़े। उन चारोंने बहुत थोड़ा गुरुओंसे पढ़ा था बाकी वे अपने आप केवल अपनी बुद्धि के हो
अनुसार स्वयं पंडित बन गये थे। गुरुमुखसे पूर्ण ज्ञान नहीं पाया था। अन्तमें जाकर गुरुसे विमुख हो गये थे । और अपने ही मनसे कुछका कुछ पढ़कर पंडित बन गये थे। वहां उतरकर उन चारोंने अपना अलग-अलग |
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