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________________ पांसागर ४१० भक्षण करने में बहुत पाप लगता है और मांस भक्षण करनेमें थोड़ा पाप लगता है इसलिये मांस अक्षणका निषेध करना ठीक नहीं है। समाधान-समस्त जीवोंको समान मानकर मांसभक्षण पुष्ट करना दुष्टोंका काम है। ऐसे दुष्टोंकी बुद्धिको धिक्कार हो । इस जीवको जैसो गति होनहार होती है वैसी हो बुद्धि उत्पन्न होती है। लिखा भी है "बुद्धिः कर्मानुसारिणो" यदि समस्त जीवोंको समान मान लिया जाय तो फिर पांच प्रकारके स्थावर और चार प्रकारके प्रस। । आदि जो जीवोंके भेव हैं वा योनियोंके भेबसे चौरासी लाख भेव हैं अथवा कुलकोडके भेदसे एकसौ साड़े। निन्यानवे लाख कुलकोडि जीवोंके भेद हैं वे अलग-अलग जीवोंके भेद किस प्रकार सिद्ध होंगे। यदि समस्त जीवोंको एकसा माना जाय तो स्त्री योनिको अपेक्षासे माता, पुत्री, बहिन आदि सब हो स्त्रीके समान हो जायगी फिर क्या स्त्रोके समान सबसे संभोग करना चाहिये। अथवा माताके समान स्त्रीका भी स्तनपान करना चाहिये । क्योंकि सब स्त्रिया एक ही हैं, सब समान हैं फिर किसीमें भेदभाव नहीं रखना चाहिये। यदि सब स्त्रियां स्त्रीपर्यायको अपेक्षासे समान होनेपर भी उन्हें माता, पुत्री स्त्रीको अपेक्षासे भेद । मानोगे तो फिर जीवोंमें भी भेव मानना हो पड़ेगा। जीवोंको उत्पत्ति, इन्द्रियाँ, प्राण, पर्याप्ति आदिको होना• धिकतासे उनकी हिंसा भी भेव पड़ता है तथा हिसामें अंतर पड़नेसे पाप भी होनाधिकता होती है। सब जीवोंके घातका समान पाप नहीं लगता । किसी एक एकेन्द्रिय जीवको हिसासे लद आदि वीन्द्रिय जोषको हिंसामें अनेक गुणा पाप लगता है। । बोइन्द्रियसे तेइन्द्रिय जोवको हिंसामें अधिक पाप लगता है तेइन्द्रियसे छोइन्द्रिय और चौइन्द्रियसे पंचेन्द्रिय । जीवोंकी हिंसामें अधिक पाप लगता है इसलिये हो एकेन्द्रिय जीवोंके कलेवरके सिवाय अन्य समस्त जीवोंके १. एकेन्द्रिय जीवोंके कलेवरकी मांस संना नहीं होतो । गेहूँ, जौ, उडद आदिको वा लकड़ो, फल, पत्तोंको कोई मांस नहीं कहता। शास्त्रोंमें भी यहो लिखा है मांसं जोवशरोरं जीवशरीरं भवेन्न वा मांसम् । यद्वनिम्बो वृक्षः वृक्षस्तु भवेन्न वा निम्बः ।। अर्थात्-मांस जोवका शरीर ही होता है परन्तु जोबोंके जितने शारीर हैं वे मांस होते हैं अथवा नहीं भी होते जैसे नीम एक वृक्ष होता है परन्तु जितने वृक्ष हैं वे सब नोन नहीं होते कोई होते हैं और कोई नहीं भी हाते। अभिप्राय यह है कि प्रस जोवोंके
SR No.090116
Book TitleCharcha Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampalal Pandit
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages597
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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