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fवा प्रतिक्रमणमें भावपूजा की जाती है आप लोग जो देव दर्शन, बंधन, पूजन, तीर्थयात्रा, नवीन जिनमन्दिरोंका !
अनवाना, प्रतिष्ठादिक कराना आदि कार्य करते हो उसमें भी आरम्भजनित हिंसा होती ही है । ये कार्य भी सागर तो बिना हिंसाके होते दिखाई नहीं देते । ये सब क्रियाएं सावध ( पापपूर्वक ) होती हैं।
इसके सिवाय यह भी विचार करना चाहिये कि पूजा, अभिषेकमें जो जलधारासे पूजा करते हो तो सन्मुख दी हुई जलधारास पूजा करने शुभ फलका श्रद्धान रखते हो तो जब सन्मुख बूर धारा देनेसे ही पुण्यको प्राप्ति होती है तो फिर भगवानके मस्तक पर दुग्धादिकको धारा देनेसे क्या पाप हो सकता है ? यदि पाप हो सकता है तो फिर आप लोगोंको भी सन्मुख धारा वेना योग्य नहीं है।
कदाचित् यह कहो कि फल तो भावोंके आधीन होता है तो फिर प्रश्न यह है कि आप लोग भावोंसे । करते हो या नहीं ? यदि भावसहित करते हो तो फिर पूजा पाठमें लिखी हुई बातोंका निषेध कर अपने मनके । अनुसार विपरोसता धारण करना नहीं बन सकेगा। तथा पूजा अभिषेकाविकको यथार्थ विषिमें आरम्भजनित
पाप नहीं मानना पड़ेगा । यदि कदाचित् आप लोग बिना भावोंके करसे कहोगे फिर बिना भावोंके ऐसा वम्भ । क्यों करना चाहिये ?
कदाचित् यह कहो कि भाव तो केवलोगम्य है इसलिये भावोंका निश्चय तो केवलज्ञानी ही कर सकते हैं तो फिर इसका उत्तर यह है कि केवलझानीपर विश्वास रखना पड़ेगा। उनके वचनोंको आजामें शंका वा संशय करना भी नहीं बन सकेगा। यह निश्चय करना पड़ेगा कि जो जिनागममें लिखा है सो सब प्रमाण और मान्य है। यदि उसमें कोई सावधता ( आरम्भजनित हिंसा ) वा निरवद्याता ( पूर्ण अहिंसा ) दिखाई पड़ती है तो उसे भी केवलो हो जाने । हम तो केवल उनकी आज्ञा मानते हैं और उसे अपने मस्तकपर रखते हैं । परन्तु आप लोग ऐसा नहीं मानते अपने मनके अनुसार कल्पना कर उसका निषेध करते हो । भग-। वानको आशामें दोष बताकर नवीन जयोन कल्पना करते हो और फिर भी सम्यक् श्रद्धानी वा सम्यग्दृष्टो बनते। हो । सो यह कैसे हो सकता है।
वर्तमानमें सम्यग्दृष्टो कैसे होते हैं उनका स्वरूप अन्यमतका एक उदाहरण देकर असलाते हैं । किसी एक दिन बर्षाऋतुमे सुर्वासा ऋषि गोवर्धन पर्वतपर आये। यह जानकर श्रीकृष्णने अपनी