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सागर
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॥ रूप धारण कर खड़ी हैं सर्वाल्हाद और सनत्कुमार नामके यक्षदेव अपने स्वरूपके अनुसार खड़े हैं । उन प्रतिमाओंके आगे आठगुने अष्टमंगल द्रव्य रवखे हैं । ये अष्ट मंगलद्रव्य प्रत्येक प्रतिमाके सामने अलग-अलग हैं । इन सब विभूतियोंसे शोभायमान उन प्रतिमाओंको इन्मादिक सम्यग्दृष्टी जीव पूजा करते हैं और वंदना करते हैं। ऐसा त्रिलोकसारमें लिखा है।
इसके सिवाय और भी जैन शास्त्रों में कृत्रिम प्रतिमाके वर्णन करते समय लिखा है । यथासुमूहूर्ते सुनक्षत्रे वाद्यवैभवसंयुतः। प्रसिद्धपुण्यदेशेषु नदीनगवनेषु च ॥ १ ॥
सुस्निग्धां कठिनां शीतां सुस्पर्शा सुस्वरां शिलाम् ।
समानीय जिनेन्द्रस्य विबं कार्य सुशिल्पिभिः॥ । कषादिरोमहीनांगं स्मश्ररेखाविवर्जितम् । स्थितं प्रलंबितं हस्तं श्रीवत्साढय दिगम्बरं ॥ पल्यंकासनं वा कुर्याच्छिल्पिशास्त्रानुसारतः। निरायुधं राजतंवा पैत्तलं काश्यजं तथा ॥४॥ प्रवालं मौक्तिकं चैव वैडूर्यादिसुरत्नजम् । चित्रज तथा लेप्यं क्वचिच्चंदन मतम् ॥५॥ प्रातिहार्याष्टकोपेतं संपूर्णावयवं शुभम् । भावरूपानुविद्धांगं कारयेद् बिंवमहतः ॥६॥ प्रातिहार्येविना शुद्धं सिद्धविम्बमपीदृशम् । सूरीणां पाठकानां च साधूनां यथागमम् ॥७॥ वामे च यक्षी विभ्राणं दक्षिणे यक्षमुत्तमम् । नवग्रहानधोभागे मध्ये च क्षेत्रपालकम् ।।८।। यक्षाणां देवतानां सर्वालंकारभूषितम् । स्ववाहनावलोपेतं कुर्यात्सर्वांगसुंदरम् ॥६॥
इस प्रकार लिखा है । यह रीति अकृत्रिम प्रतिमाओंको अपेक्षा अनादिनिधन है तथा परम्परा करके भी योग्य है।
जो लोग धरणेन्द्र पावतोसहित ( फणा सहित ) श्री पार्श्वनाथकी प्रतिमासे अरुचि करते हैं वे अधो. १. अच्छे मुहर्तमें सुन्दर चिकना पत्थर लाकर जिन प्रतिमा करनी चाहिये। जो आठों प्रातिहााँसे सुशोभित हो । प्रातिहार्योंके बिना वहो प्रतिमा सिबोंको कहलाती है। प्रतिमाके बाई ओर यक्षी दांई और यक्ष नीचे नवग्रह मध्यमें क्षेत्रपाल हो । यक्षादिकोंकी मूर्ति सब अलंकारोंसे सुशोभित वाहन और वधू सहित होनी चाहिये।
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