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वर्चासागर - १३७ ]
समाधान-इसकी निरुक्ति अथवा प्रत्येक शब्दके अर्थसे निकलनेवाला अर्थ इस प्रकार है। जो छठे । गुणस्थानमें रहनेवाले साधुके सामायिक छेदोपस्थापनापूर्वक परिहार अर्थात छहों कायके जीवोंको हिंसाका त्याग करनेसे विशुद्धि अर्थात् अत्यन्त निर्मलता-आत्माको निर्मलता हो गई है उस निर्मलताके साथ-साय सम् अर्थात् अच्छी तरह यम अर्थात् अपनी आयु पर्यंत समस्त पापोंका त्याग कर देना सो परिहारविशुद्धि संयम है।
तथा इसको उत्पत्ति इस प्रकार होती है। जो मनुष्य जन्मसे लेकर भोजन पान आदिसे सदा मुखो रहा हो, । कमसे कम तीस वर्षको आयुमें दीक्षा लेवे, सामायिक आदि संयमके साथ-साय कमसे कम आठ वर्ष पर्यंत तीर्थकर भगवान्के चरणकमलोंके निकट रहकर आचारांगको आवि लेकर प्रत्यारपान नामके नौवें पूर्व तक। पाठी हो जाय ऐसे महामुनिके परिहारविशुद्धि नामका संयम उत्पन्न होता है। इस संयमको धारण करनेवाले साधुको प्रवृत्ति इस प्रकार है । प्रातःकाल, नाममात्रकाल और सामान तीनों सामायिकके समयोंको छोड़कर बाकी के समयमें कमसे कम दो कोस विहार करता है । रात्रिमें बिहार नहीं करता तथा जिसके वर्षाकालमें ! एक जगह चौमासा करनेका नियम भी नहीं रहता। एक जगह चौमासा करे भी और न भी करे । अब आगे। इसको स्थिति बतलाते हैं। इसको जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त है। अंतर्मुहूर्त बाद गुणस्थान बदल सकता है। तथा उत्कृष्ट स्थिति अड़तीस वर्ष कम एक करोड़ पूर्व है जिस मनुष्यको एक करोड़ पूर्वकी आयु है, वह यदि तीस वर्षको आयुमें दीक्षा ले लेवे और फिर आठ वर्ष तक तीर्थकरके निकट रहकर पहले अंगसे लेकर ग्यारह
अंग नौ पूर्व तक अभ्यास करे और फिर उसके परिहारविशुद्धिसंयम उत्पन्न हो ऐसो अवस्थामें वह संयम अड़। तीस वर्ष कम एक करोड़ पूर्व तक रह सकता है।
प्रश्न---वर्षाकालमें सामान्य साषु भी गमन नहीं करते फिर भला परिहारविशुद्धिसंयमको धारण करनेवाला साषु किस प्रकार गमन करता है। यदि वाह वर्षाकालमै भी गमन करता है तो फिर उसके परिहारविशुद्धि अर्थात् हिंसाका त्याग पूर्वक आत्माको विशुद्धि किस प्रकार बन सकती है ?
समाधान--जिस प्रकार कमलके पत्ते जलमें रहते हुए भी जलसे अलिप्त रहते हैं उसी प्रकार जिस मुनिराजके परिहारविशुद्धिसंयमको ऋद्धि प्राप्त हो गई है वे यदि छहों कायके जीवोंके समूहमें भी गमन करें तो भी वे पापोंसे लिप्त नहीं होते हैं ।
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