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१ देवके समवशरणको रचनाका वर्णन करते समय भगवजिनसेनाचार्यने सिंहासनके ऊपर कमलका वर्णन नहीं है किया है। केवल सिंहासन पर हो चार अंगुल मधे भगवानका विराजना लिखा है। सो ही आदिपुरागके तेईसवे पर्व में लिखा हैमेखलायां तृतीयस्यामथैक्षिष्ट जगद्गुरुम् । वृषभं...............श्रीमद्गंधकुटीस्थिते ॥ तद्गर्भरत्नसन्दर्भरुचिरे हरिविष्टरे । मेरुश्रृंग इवोत्तुंगः सुनिविष्टमहासनुः ।। ___ अर्थात्-भगवान ऋषभदेव सोसरी मेखलाकी गंधकुटी पर रखे हुए सिंहासन पर विराजमान थे। प्रश्न-सिंहासन पर कमलका वर्णन कई जगह आया है । देखो
तिह विच सिंहासन वन्यो जगसार हो, ऊपर कमल अनूप।
अन्तरिक्ष जापर रहे जगसार हो, अतिशय श्री जिनभूप ॥
इसके सिवाय समवसरणके पूजनके पाठ तथा और भी ग्रन्थों में कमलका वर्णन लिखा है । सो इसका निषेध क्यों करना चाहिये । शास्त्रोंमें लिखा है इसलिये हम कमल बनाते है ।
उसर--आदिपुराणके २३ पर्वमें तथा इस प्रकरणके अन्यपर्यो में देखनेपर भी ये श्लोक मिले नहीं इससे मालूम होता है कि ये श्लोक लघु आदिपुराणके होंगे । आदिपुराणमें लिखा हैविष्टरं तदलंचक्रे भगवानादितीर्थकृत् । चतुर्भिरंगुलैः स्वेन महिम्नाऽस्पृष्टतत्तलः॥
-पर्व २३ श्लोक २९ । अर्थात् भगवान ऋषभदेव उस सिंहासनपर अपने अगुलोंसे चार अंगुल ऊंचे अधर विराजमान थे।
ये वचन मूलसंघके नहीं हैं । यदि मूलसंघके होते तो जिनसेनाचार्य कैसे भूलते। यवि कदाचित् ऐसा मान भी लिया जाय तो फिर आठ प्रातिहार्यके बदले नौ प्रातिहार्य मानने पड़ेंगे। सो होते नहीं। प्रातिहार्य आठ ही होते हैं । जैसा कि लिखा है
अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टी दिव्यध्वनिश्वामरमासनं च । भामंडलं दुदुभिरातपत्रं सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम् ॥
बालमनचाहिन्य
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